Protest against Padmavati

रानी पद्मावती पर इस तरह का विवाद क्यों..?

पद्मावती विवाद नित नए नए रूप लेता जा रहा है और लोग अपने अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए नित नए नए तर्क गढ़ते जा रहे है। आम लोग जब किसी विषय के सम्बन्ध में अपने विचार रखते है तो प्रतिष्ठित लोगों द्वारा प्रायः उन्हें इंटरनेट की भाषा में ट्रोलर कहके उपेक्षित कर दिया जाता है या फिर अपनी जरूरत के अनुसार उसका उपयोग कर लिया जाता है लेकिन जब यही कार्य किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो उसकी ट्रोलिंग या विवेचना होना स्वाभाविक है क्योकि उसका प्रभाव दूरगामी होता है। यहां मेरा अभिप्राय किसी को गलत या सही सिद्ध करना नही है बल्कि उन बातों की ओर ध्यान इंगित करना है जो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप नही है। रानी पद्मावती (रानी पद्मिनी) की ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में मैंने कुछ विचार इसके पहले लेख में रखे है इसलिए इस विवाद के तर्कों के विषय में बात कर लेना बेहद अहम् है।

गीतकार जावेद अख्तर ने भी पिछले दिनों ट्वीट किया- “पद्मावत इतिहास नहीं, अपितु एक काल्पनिक कहानी है। पद्मावत पहला हिंदी नॉवल है, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अकबर के दौर में लिखा था। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे कि अनारकली और सलीम।” यहां जावेद जी के कुछ तथ्य थोड़ा सा सही हो सकते है कि पद्मावती पहला अवधी महाकाव्य हो, जो रानी पद्मावती के विषय मे लिखा गया हो परंतु इस सम्बन्ध में इतिहासकार डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि छिताईचरित में, जो जायसी से कई वर्षों पूर्व लिखा गया था, पद्मिनी तथा अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन है। सी.ई.सी. के लाइव लेक्चर में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि जायसी ने उत्तर भारत में प्रचलित रानी पद्मिनी कि कथा से प्रेरित होकर पद्मावत जैसे महाकाव्य को लिखा जिसमे प्रथम खंड में रानी पद्मावती के विवाह तक कल्पना का उपयोग किया है जिसका ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता लेकिन दुसरे खंड में राजा रत्नसिंह (रतनसेन), रानी पद्मावती और सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी कि कथा के ऐतिहासिक प्रमाण है। स्वाभाविकरूप से काव्य में कल्पना-शक्ति का भी सहारा लिया गया होगा लेकिन काव्य होने के कारण आप उसकी ऐतिहासिकता को उपेक्षित नहीं कर सकते और वो भी तब जब आप एक बौद्धिक व्यक्ति कि श्रेणी में आते हों या फिर लोग आपकी बातों को महत्त्व देते हैं। ऐतिहासिक स्थान तो ९०% से ज्यादा आबादी के पूर्वजों को भी नहीं मिला है, इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि उनका कोई अस्तित्व नहीं था। जन-मानस में लोक-कथाओं और किवदंतियों का भी बहुत बड़ा स्थान होता है और ये इसी समाज से अस्तित्व में आती है। संजय लीला भंसाली जी की सोच अपनी जगह महत्त्व रखती है परन्तु उन लाखों-करोड़ों लोगों की भावनाएं इसलिए नगण्य नहीं हो सकती क्योंकि उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भंसाली जी की तरह कोई बड़ा मंच नहीं उपलब्ध है। अगर भंसाली जी को अपनी कल्पना शक्ति को प्राथमिकता देनी ही थी तो उचित ये होता कि वो रानी पद्मावती से प्रेरित कहानी लिखते लेकिन चरित्रों का नाम बदल सकते थे जिसका सबसे बड़ा नुक्सान ये हो सकता था कि उन्हें वो विवाद, वो प्रचार और वो व्यवसाय नहीं मिलता जो शायद बहुत सी फ़िल्में ढूंढती है।

फिर जावेद जी ने एक बड़े न्यूज़ चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा “आम राजपूत की बात तो मै सुनने को तैयार हु, फिर भी.. ये जो राणा लोग है और ये जो महाराजे है, राजे है राजस्थान के.. २०० साल तक अंग्रेज के दरबार में खड़े रहे, पगड़ियां बांधके और सलाम करते रहे, तब उनकी राजपूती कहाँ थी, तो ये तो राजा ही इसलिए हैं कि इन्होंने अंग्रेजों कि गुलामी एक्सेप्ट की थी, ये अपनी डिग्निटी की बात न करें, मैं तो सड़क पे जो गरीब राजपूत है उसकी बात सुनने को तैयार हूँ लेकिन ये कौन हैं.. ये तो अंग्रेजों के आदमी हैं भाई.. ये राज ही आजतक इसलिए करते रहे क्योंकि इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी की“। हमें समझ में नहीं आता इस तरह के विचार जावेद जी के कैसे हो सकते है.. ये वही व्यक्ति है जिनकी फ़िल्मी कहानियों में नायक उसी जमींदार या व्यवस्था के खिलाफ बगावत करता है जिसकी गुलामी उसकी पीढ़ियां करती आयी हैं। क्या उसे उस गलत व्यवस्था से लड़ने का हक़ इसलिए नहीं है क्योकि उसकी पीढ़ियों ने उस व्यवस्था का किसी भी कारण से जुल्म सहा था? निश्चितरूप से जावेद जी या तो तब गलत थे या आज गलत है। एक ही सन्दर्भ में किन्ही दो व्यक्तियों या विषयों के प्रति दो तरह के विचार का अर्थ, उस व्यक्ति पर किसी न किसी प्रभाव का होना ही दर्शाता है, फिर चाहे वो उनके भंसाली जी के साथ संबंधों कि बात हो या फिर व्यावसायिकता की..। उन्हें ये भी ध्यान नही रहा कि राजशाही भारत से कब की खत्म हो चुकी है और उन दोनों लोगों के मानसिकता में कोई अंतर नही है जो खुद को अभी भी राजा समझते है या जो उन्हें अभी भी राजा ही समझते है। आज के भारत मे राजा को कोई विशेषाधिकार नही है लेकिन उसे आम आदमी के अधिकारों से वंचित करना कहाँ तक उचित है? उन्होंने जाने-अनजाने राजपूतों को आम राजपूत और रजवाड़ों की श्रेडियों में बांटने की भी कोशिस की जैसा कि फिल्मों और कहानियों की स्क्रिप्ट में अक्सर होता है लेकिन मूल बात भूल गए कि अमीरी या गरीबी देखकर मजबूरियां जरूर आती हैं स्वाभिमान नहीं.. जितना स्वाभिमान अमीर का होता है, उतना ही गरीब का भी..। समाज के प्रतिष्ठित लोगों को देश और समाज को जोड़ने पर ध्यान देना चाहिए, ना कि उन्हें बांटने पर..।

इसी तरह का विचार एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल के एडिटर पाणिनि आनंद जी का है जिन्होंने अपने लेख में बहुत ही मूलभूत प्रश्न उठाये लेकिन उसके लिए जो तर्क और समय का उपयोग किया वो सकारात्मक बिल्कुल नही है। उनके प्रश्न का सार यह है कि पद्मावती के एक चरित्र में लाखों लोगों का बलिदान क्यों खो गया? जिसके लिए उन्होंने कई तर्कों का सहारा लिया जैसे किसी चरित्र ने सारे इतिहासबोध और आज की चेतना पर कब्जा कर लिया हो। पद्मावती के साथ 18 हजार और महिलाओं ने जौहर किया था, उनका जिक्र क्यों नही? उन्हें ये नही समझ मे आया कि क्या जौहर राज्य की रक्षा के लिए बलिदान से बड़ा हो गया? उनके इन तर्कों को सुनकर मैं भी थोड़ा भ्रमित हो गया। मुझे ये नही समझ मे आ रहा कि वो रानी पद्मावती के जौहर को कम करके आंकना चाहते है या फिर दूसरे बलिदानों को बड़ा..? उनका अचेतन बाकी 30000 लोगों के बलिदान को महत्व देने के लिए प्रेरित कर रहा है या फिर रानी पद्मावती के बलिदान को महत्व मिलने से पीड़ा महसूस कर रहा है? बात यहीं तक होती तो भी समझ मे आ जाती लेकिन बाकी बलिदानों की श्रेणी और जाति पर उनका जोर निश्चितरूप से उनके मंतव्य को सकारात्मक नही दर्शाता। अगर यही घटना आज की होती तो शायद उसमे धर्म का कोण जोड़के, उस स्तर पर भी तुलना करने की कोशिश होती। ये कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ आप रानी पद्मावती को ऐतिहासिक भी नही मानना चाहते और दूसरी तरफ दासियों और सैनिकों को ऐतिहासिकता दिलाने का प्रयास कर रहे है। कल्पना कीजिये कि अगर इस तरह के विचार उस समय लोगों के मष्तिष्क में आते तो दासियाँ बोलती कि जौहर तो रानियों का फर्ज है, हमें करने की क्या जरूरत.. सैनिक अपनी तलवार रख देते और बोलते कि युद्ध तो राजा का फर्ज है, हमें तो सैनिक ही रहना है, चाहे इस सेना में रहे या उस सेना में.. लेकिन उनका स्वाभिमान जिंदा था, उन्हें पता था कि किसी आतताई की तलवार राजा, रानी, सैनिक और दासी में भेद नही करती.. एक दासी का स्वाभिमान किसी रानी से भी बड़ा हो सकता है, लेकिन इस बात को समझने के लिए सिर्फ बुद्धि ही नही, भावनाओं और हृदय की भी आवश्यकता होती है। अगर सरदार पटेल अपने दायित्वों से सिर्फ इसलिए पीछे हट गए होते क्योकि उन्हें प्रधानमंत्री नही बनने दिया गया तो आज का भारत शायद कई टुकड़ों में विभक्त होता। इसीलिए देश और समाज के प्रति कुछ करने के लिए सिर्फ बुद्धिजीवी होना ही पर्याप्त नही है, उसके प्रति सम्मान और समर्पण के साथ-साथ, कर्मयोगी भी होना अतिआवश्यक है। भारत के सम्मुख ढेरों सारे मुद्दे है जिनका अपना महत्त्व है लेकिन नोटबंदी, जीएसटी, मजदूरों और किसानों की आंड में किसी को भी लोगों की भावनाओं की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। हर एक मुद्दे का हल ढूंढना और हमारी संयुक्त विरासत को महत्त्व देना भी हमारा ही दायित्व है अन्यथा जो डाल अपनी जड़ों से अलग हो जाती है उसकी चेतना समाप्त हो जाती है।

कुछ लोग ये प्रश्न उठा सकते है कि मैंने उन लोगों का उल्लेख क्यों नही किया जो भंसाली जी के प्रति तरह-तरह की बातें कर रहे हैं तो उनसे मैं इतना ही कहूंगा कि वो देश की सम्पूर्ण विरासतों को अपनी स्वयं की विरासत की तरह सोचकर देखें उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। शांतिपूर्वक किया गया हर औचित्यपूर्ण विरोध या प्रदर्शन लोकतंत्र का ही अंग है, बशर्ते कि वो शांतिपूर्वक ही हो। कृपा करके जाति और धर्म के चश्मे को निकालकर देखें क्योंकि अगर गहराई से देखेंगे तो कुछ लोग जाति और धर्म की लड़ाई लड़ते-लड़ते, उसकी दरार को खुद ही कितना बड़ा कर देते है, उन्हें खुद भी पता नही चलता। भारत का अतीत भी हमारा संयुक्त अतीत है और भविष्य भी हमारा संयुक्त भविष्य..।

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