Adi Shankaracharya

आदि गुरु शंकराचार्य

जब वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने के कारण भारतीय समाज कई तरह की विसंगतियों से ग्रसित था और कई सम्प्रदायों का उद्भव हो रहा था, उस समय आदि गुरु शंकराचार्य ने आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर सन्देश दिया जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है और अद्वैत सिद्धांत का प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में करके भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य किया| उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा और भारत में चार कोनों पर चार मठों, दक्षिण में शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ की स्थापना की जो कि आज भी भारत की एकात्मकता को दिग्दर्शित कर रहा है।

विकीपीडिया पर अभी तक उप्लब्ध जानकारी के अनुसार, आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम के इतिहासकार समुदाय के द्वारा वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् ७८८ को तथा मोक्ष ई. सन् ८२० स्वीकार किया जाता है, परंतु महाराज सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं। वर्तमान इतिहासज्ञ जिन शंकराचार्य को 788 – 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे | वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे । इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल आचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए । इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है!

शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है जिन्होंने सैद्धांतिक ज्ञान ही नहीं अपितु व्यवहारिक ज्ञान को अपनी वाणी में सम्मिलित किया जिसका एक उदाहरण तब मिलता है जब मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के समय, जीवन के आध्यात्मिक पक्ष के साथ-साथ व्यावहारिक पक्ष को जानने के लिए, परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्न्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना, उनके द्वारा जीवन को समग्र रूप में स्वीकार करने का प्रमाण है, जहाँ विषय या वस्तु का आग्रह और निषेध दोनों पूर्णरूप से गिर जाते हैं।

आदि गुरु शंकराचार्य ने ना सिर्फ अपने विचारों अथवा ज्ञान द्वारा ही, बल्कि कर्मों द्वारा समस्त भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य किया और संसार को एक दिशा दी। वे सिर्फ एक विशाल व्यक्तित्व वाले दार्शनिक ही नहीं, बल्कि एक ऐसे राजनैतिक संत भी थे जिन्होंने कभी हमारे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम भी किया था जिसके कारण उनका व्यक्तित्व एक “लौहपुरुष” के रूप में भारतीय मानस पर सदैव अंकित रहेगा।