Lord Ayyappa

शबरीमाला मंदिर विवाद : आस्था एवं अहंकार की राजनीति के मध्य एक द्वन्द

आस्था का उद्भव ही अहंकार के तिरोहण से है.. आस्था का मार्ग है समर्पण का.. स्वयं के इष्ट के प्रति.. स्वयं के विश्वास के प्रति.. जबकि अहंकार का मार्ग है आक्रमण का.. स्वयं के संचय के लिए.. स्वयं के आरोपण के लिए..। आक्रामक होकर किसी के शरीर पर अधिकार किया जा सकता है.. सजा भी दी जा सकती है लेकिन जो विशुद्ध है, जो जीवन का सौंदर्य है, जो चेतना है.. उस पर आक्रामक रूप से ना तो अधिकार ही किया जा सकता है और ना ही सजा दी जा सकती है। जीवन का जो सौंदर्य है वो तत्वों से कहीं ज्यादा है.. और उसे पाने का एक ही मार्ग है.. समर्पण का.. विश्वाश का.. आस्था का..। सनातन काल से भारतीय महाद्वीप में जो भी धार्मिक उदभव हुए.. वो आस्था से निकले, ना कि आक्रमण से..। इस भूमि से अनेकों धर्मों ने, पंथों ने आकार लिया लेकिन दुसरे धर्म या पंथ का दमन करके नहीं.. बल्कि अपने दर्शन से, ज्ञान से और अपनी आस्था से.. लेकिन इसके साथ ही साथ भारतीय संस्कृति, भारतीय आस्था पर वाह्य आक्रमण का भी हजारों वर्ष का इतिहास रहा है। कुछ तो ऐसा विशेष होगा इस मिटटी में, यहाँ के दर्शन में.. कि एक ओर जहाँ बड़ी से बड़ी सभ्यताएं, संस्कृतियां जीर्ण होती गयी, वही भारतीय संस्कृति आज भी गर्व से विद्द्यमान है। इसके बड़े से बड़े कारणों में एक है भारतीय चिंतन का संश्लेषक स्वरुप और चेतना द्वारा आक्रामकता के प्रतिरोध का प्राकृतिक नियम..। यही कारण है कि मात्र संविधान में लिख देने भर से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एवं वैचारिक रूप से भारत को आज भी धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष होने का गौरव प्राप्त है। इस समय की ज्वलंत घटनाओं पर विचार किया जाये तो शबरीमाला मंदिर परिसर में भगवान अयप्पा के 10 वर्ष से लेकर 50 वर्ष की महिलाओं के गर्भ गृह में दर्शन के अधिकार का विषय, एक प्रमुख मुद्दा रहा है और जब हम किसी विषय को मुद्दा कहते है तो वो अहंकार का विषय हो सकता है.. राजनीति का विषय हो सकता है.. लेकिन आस्था का तो कदाचित नहीं..। हमारे देखे भी ये राजनीतिक मुद्दा इसलिए है कि इस विषय पर महिलाओं के अधिकार के नाम पर जो लोग भी मुख्यरूप से सक्रिय है व्यक्तिगत रूप से उनके लिए सबरीमाला मंदिर में प्रवेश आस्था का विषय तो कतई नहीं है.. हाँ, अहंकार का विषय अवश्य हो सकता है.. फिर चाहे वो जनहित याचिका दायर करने वाले इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन हों या फिर सुरक्षा-व्यवस्था के बीच प्रवेश करने का असफल प्रयास करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रेहाना फातिमा.. ऐसा क्यों.. इस पर विचार आगे करते है, लेकिन उससे पहले भगवान अयप्पा से सम्बंधित मान्यताओं पर विचार कर लेते है..।

भगवान अयप्पा के जन्म के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं लेकिन अतिप्रचलित कथानुसार माँ दुर्गा ने जब महिषासुर का वध कर दिया तो उसकी बहन महिषी ने भगवान ब्रम्हा की तपस्या की और यह वरदान माँगा कि भगवान शिव और भगवान विष्णु के बेटे को छोड़कर कोई भी उसे मार ना सके। इसके पीछे उसका विचार था कि शिव और विष्णु दोनों ही नर देवता हैं और ऐसे में उन दोनों का कोई बच्चा पैदा नहीं हो सकता। हिन्दू धर्म की कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब भगवान विष्णु ने मोहनी का रूप धारण किया, तब भगवान शंकर उनके सौंदर्य पर मुग्ध हो गए, जिससे एक बच्चे का जन्म हुआ। कंब रामायण, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंदपुराण के असुर कांड में उस शिशु का ‘शास्ता’ के नाम से जिक्र है। भगवान अयप्पन उन्हीं के अवतार माने जाते हैं। भगवान हरि (विष्णु) और भगवान हर (शिव) से उत्पन होने के कारण उनको ‘हरिहरपुत्र’ के अलावा अयप्पन, मणिकांता आदि नामों से भी जाना जाता है। भगवान् अयप्पा पंडालम के राजा राजशेखरा को पंपा नदी के तट पर मिले जहाँ से राजा राजशेखरा उन्हें अपने महल ले आये और 12 वर्षों तक पुत्र के रूप में उनका पालन पोषण किया। इस बीच भगवान् अयप्पा ने महिषी नामक राक्षसी का वध उस समय किया जब वो मां के इलाज के लिए जंगल में शेरनी का दूध लेने गए थे। उसके बाद जब भगवान अयप्पा को वैराग्य उत्पन्न हुआ तो वे महल को छोड़कर प्रस्थान कर गए।

भारत के राज्य केरल के सबरीमाला में भगवान अयप्पा का लगभग 800 वर्ष पुराना मंदिर स्थित है जो केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किलोमीटर दूर पत्तनमतिट्टा जिले के पेरियार टाइगर रिजर्वक्षेत्र में है। 12वीं सदी का यह मंदिर पश्चिमी घाटी में पहाड़ियों की श्रृंखला सह्याद्रि के बीच नौ सौ चौदह मीटर की ऊंचाई पर स्थित है जहाँ घने जंगलों, ऊंची पहाड़ियों और तरह-तरह के जानवरों को पार करके पहुंचना होता है। चूंकि भगवान अयप्पा महल छोड़कर चले गए थे इसलिए आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पंडालम राजमहल से अय्यप्पा के आभूषणों को संदूकों में रखकर नब्बे किलोमीटर की एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है जो तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है। 15 नवंबर को मनाया जाने वाला मंडलम और 14 जनवरी को मनाया जाने वाला मकर विलक्कू सबरीमाला के प्रमुख उत्सव हैं। मकर माह के पहले दिन आकाश में दिखने वाले एक खास तारे, मकर ज्योति और पहाड़ी पर दिखने वाली ज्योति, मकर विलक्कू को देखने के लिए दूर-दूर से शृद्धालु आते है। इस मंदिर के द्वार मलयालम पंचांग के पहले पांच दिन और विशु माह यानी अप्रैल में ही खोले जाते हैं। इस पावन मंदिर के गर्भ-गृह तक पहुँचने के लिए 18 पवित्र सीढ़ियों को चढ़ना होता है जिनमें पहली पांच सीढ़ियां मनुष्य की पांच इन्द्रियों (दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श), अगली आठ सीढ़ियां मानवीय भावनाओं (रति, उत्साह, शोक, हास, विसम्या, भय, जुगुप्सा और क्रोध), अगली तीन सीढ़ियां मानवीय गुण (सत्व, रज और तम) तथा अंतिम दो सीढ़ियां ज्ञान एवं अज्ञान की प्रतीक है। भगवान अयप्पा के गर्भ-गृह में प्रवेश से पहले मनुष्य को इन 18 विषयों को प्रतीकात्मक रूप से पार करना होता है जिसका अपना एक अलग आध्यात्मिक महत्त्व है। चूंकि सबरीमाला के देवता अयप्पा ब्रह्मचारी है इसीलिए 10 से 50 वर्ष की रजस्वला महिलाओं का मंदिर में प्रवेश सदियों से निषेध रहा है और इसे मंदिर के इतिहास एवं परंपरा का हिस्सा माना जाता है।

भगवान अयप्पा के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विवाद को समझने के लिए हमें इस विवाद के इतिहास को भी समझना चाहिए। सर्वप्रथम यह विवाद 1990 में प्रकाश में आया जब 24 वर्ष के एक युवक एस महेंद्रन, जो कि कोट्‌टायम जिले की एक लाइब्रेरी में सचिव थे, की नजर अखबार की एक तस्वीर पर पड़ी जिसमें केरल में मंदिरों की व्यवस्था संभालने वाले देवस्वम बोर्ड की तत्कालीन आयुक्त चंद्रिका अपनी नातिन के पहले अन्नप्राशन संस्कार पर मंदिर में उपस्थित थी। महेंद्रन ने केरल हाईकोर्ट को सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक के लिए पत्र लिखा जिसे जनहित याचिका के तौर पर स्वीकार करते हुए अगले वर्ष केरल हाईकोर्ट ने इस याचिका पर फैसला सुनाया कि मंदिर में पीरियड्स की उम्र वाली महिलाओं के प्रवेश पर रोक न तो संविधान का और न ही केरल के कानून का उल्लंघन है इसलिए इसे बरकरार रहना चाहिए। इस आदेश के साथ ही मंदिर में महिलाओं का प्रवेश मान्यताओं के साथ ही, कानूनी रूप से भी प्रतिबंधित हो गया। इस मामले ने वर्ष 2006 में एक बार पुनः तूल पकड़ा जब कन्नड़ अभिनेत्री, जो अब राजनेता हैं, जयमाला ने सार्वजनिक रूप से दावा किया कि 1987 में, जब वो 28 वर्ष की थी, मंदिर गई थीं और गर्भ-गृह में देवता की मूर्ति को छुआ भी था और यह सब एक फिल्म की शूटिंग का हिस्सा था। इसके बाद व्यवस्थापकों ने मंदिर का ‘शुद्धिकरण’ करवाया और केरल सरकार ने जांच क्राइम ब्रांच को सौंप दी जो कि बाद में बिना किसी नतीजे के बंद कर दी गई। इस ‘शुद्धिकरण’ को भेदभाव मानते हुए और प्रतिबन्ध को छुआछूत का तर्क देकर वर्ष 2006 में इंडियन यंग लॉयर एसोसिएशन की पांच महिला वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध हटाने की मांग की। जिस पर वर्ष 2007 में केरल की लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने यंग लॉयर एसो. की याचिका के समर्थन में हलफनामा दाखिल किया परन्तु फरवरी 2016 में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार आई तो महिलाओं को प्रवेश देने की मांग से पलट गई। नवंबर 2016 में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के फिर सत्ता में आने पर उसने पुनः महिलाओं के प्रवेश के समर्थन में हलफनामा दिया जिस पर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने मामला संविधान पीठ को सौंप दिया और जुलाई 2018 में पांच जजों की बेंच ने मामले की सुनवाई शुरू की। 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने 4-1 के बहुमत से फैसला सुनाया कि कि सबरीमाला में महिलाओं को गैर-धार्मिक कारणों से प्रतिबंधित किया गया है, जो सदियों से जारी भेदभाव है। पितृसत्ता के नाम पर समानता के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। पीरियड्स की आड़ लेकर लगाई गई पाबंदी महिलाओं की गरिमा के खिलाफ है। मगर संविधान पीठ में शामिल एकमात्र महिला जस्टिस ने अपने विपरीत फैसले में कहा कि सती जैसी सामाजिक कुरीतियों से इतर यह तय करना अदालत का काम नहीं है कि कौन- सी धार्मिक परंपराएं खत्म की जाएं।

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए जहा एक ओर केरल सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने में जुट गई है वहीँ कुछ हिन्दू संगठन तथा भक्तों की संस्थाओं की पुनर्विचार याचिका की मांग पर स्पष्ट भी कर चुकी है कि वह फैसले के खिलाफ नहीं जाएगी। कोर्ट के आदेश के चौथे ही दिन से दिल्ली से लेकर पंडालम, जिसे भगवान अय्यपा की जन्मस्थली माना जाता है, तक विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है और जिसमें सैकड़ों की संख्या में महिलाएं भी सम्मिलित हैं। नायर समुदाय की संस्था के साथ ही साथ दिल्ली की चेतना कन्साइंस ऑफ वुमन, नेशनल अय्यपा डिवोटी एसोसिएशन, भगवान अय्यपा की जन्मस्थली से जुड़े पंडालम पैलेस तथा महिला भक्तों की संस्था पीपुल ऑफ धर्मा की ओर से इस मुद्दे पर पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुकी है जिससे संभवतः यह मामला आगे भी चलता रहे और इसी तरह के कई अन्य धर्मस्थलों पर ऐसी समानता की मांग उठने लगे। केरल के अट्टुकल मंदिर में जहाँ केवल महिलाएं ही पूजा कर सकती है तो कन्याकुमारी के भगवती मां मंदिर में केवल संन्यासी पुरुष मंदिर ही के द्वार तक जा सकते हैं अन्यथा मंदिर परिसर में भी प्रवेश प्रतिबंधित है। मुजफ्फरपुर के माता मंदिर में एक तय समय में जहाँ मंदिर के पुजारियों तक का प्रवेश प्रतिबंधित है तो असम के मां कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ में एक विशेष समय में केवल महिला पुजारी या संन्यासी ही मंदिर की सेवा करते हैं। इस देश में कई ऐसे मंदिर है जहाँ स्त्री या पुरुष को प्रवेश की अनुमति नहीं है और यदि है भी तो कुछ विशेष दिनों में ही..। ऐसी मान्यताओं से खुद को व्यथित दिखाने वाले लोग भी वही है जिनका अपना खुद का एक मत है कि धर्म कोई अवैज्ञानिक चीज़ है और समानता जैसे उनके अधकचरे ज्ञान पूर्ण वैज्ञानिक..। दोनों की ही अपनी मान्यताएं है और टूटने का भय भी.. लेकिन अप्रत्यक्ष मतावलम्बी का भय कहीं अधिक गहरा है। स्वयं के अप्रत्यक्ष मत को स्वीकार और प्रकट करने के लिए गहरे में कहीं अधिक साहस की आवश्यकता होती है इसलिए ऐसे लोग एक ओर जहाँ तरह-तरह के चोले पहनकर खुद को स्वयं की ही नजरों से छुपाने का असफल प्रयास करते रहते है तो दूसरी ओर अन्य मतों की नकारात्मक आलोचना भी..। भगवान अयप्पा के नैष्ठिक ब्रम्हचारी होने का पता होते हुए भी यदि कुछ लोगों को उनके व्यक्तिगत अधिकारों का बोध नहीं है तो ये उस अबोध, जिसे दूसरों के अधिकारों का रक्षक होने का भ्रम है, की स्वयं की समस्या है। कुछ लोग इस तरह के बचकाने तर्क भी देने का प्रयास कर सकते हैं कि पौराणिक कथाओं के आधार पर हम कैसे ये दावा कर सकते है कि भगवान अयप्पा ब्रम्हचारी थे.. क्या हम उनसे मिले हैं..? तो मिले तो हम ऐसे लोगों के पूर्वजों से भी नहीं है.. लेकिन हमारा उनसे ना मिलना उनके पूर्वजों के अस्तित्व या व्यक्तित्व पर ना तो प्रश्न ही खड़ा कर सकता है.. और ना ही हमें अपनी सुविधानुसार उन्हें परिभाषित करने का अधिकार देता है। हमारी इन बातों पर कोई भी स्वघोषित नारीवादी या तथाकथित बुद्धिजीवी, हमें ‘रूढ़िवादी’ या ‘पुरातनपंथी’ या ‘दक्षिणपंथी’ होने का तमगा दे सकता है लेकिन उसे कम से कम ये अवश्य ज्ञात होना चाहिए कि मंदिर के द्वार आस्था से खुलते हैं या फिर अहंकार से.. और यही हमारा मूल प्रश्न भी है..।

जनहित याचिका दायर करने वाले इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन के वकील हों या फिर धर्म से मोहभंग का पहले ही दावा कर चुकी और मंदिर में प्रवेश का असफल प्रयास करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रेहाना फातिमा जैसे लोग.. क्या ये लोग आस्थावश मंदिर में प्रवेश चाहते हैं..? यदि हाँ, तो आस्था के लिए संघर्ष का रास्ता, धर्मपरायण तो कदाचित नहीं हो सकता और यदि ये सुर्खियां बटोरने का अहंकारी साधन है तो समस्त समाज को इस पर चिंतन करना चाहिए। धर्म को अफीम की संज्ञा देने वाली वाम विचारधारा यदि मंदिर में लोगों के प्रवेश को लेकर इस तरह प्रयासरत है तो उसमें आये इतने बड़े बदलाव को सकारात्मक लेना चाहिए लेकिन यदि धर्म अथवा आस्था को लेकर किसी तथाकथित नारीवादी या समतावादी का रूख आक्रमणकारी है तो उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि आक्रमकता से हम किसी को पक्षकार बनने के लिए विवश तो कर सकते है लेकिन आस्था परिवर्तन नहीं ला सकते। किसी को भी ऊपर या नीचे, ना रखते हुए हमें ये समझने की जरूरत है कि सामजिक जीवन में जिस तरह की भूमिका न्यायालय की है.. व्यक्तिगत और आध्यात्मिक जीवन में उसी तरह की भूमिका धार्मिक-स्थलों की है। न्यायालय में व्यक्ति सामजिक न्याय के लिए जाता है तो धार्मिक-स्थलों पर भी वही व्यक्ति सामजिक न्याय के साथ ही साथ अत्यंत व्यक्तिगत और मानसिक न्याय की खोज में जाता है। प्रार्थना और विनती तो दोनों से ही जगह की जाती है और सत्यरक्षा की अपेक्षा भी दोनों से ही होती है.. एक से यदि सामाजिक सत्य की तो दुसरे से आत्मिक सत्य की.. लेकिन यदि इन्ही दोनों पीठों का कार्यक्षेत्र एक दुसरे से प्रत्यक्षरूप से टकराने लगे तो भ्रम की स्थिति तो होगी ही.. और जीवन के सबसे बड़े संकटों में एक है किसी का भी भ्रमित होना.. उम्मीद खोने लगती है.. ध्येय खोने लगता है.. भविष्य खोने लगता है..।

जहाँ तक कानूनी पहलुओं की बात है तो न्याययालय में भी पुनर्विचार का विकल्प इसीलिए प्रदान किया गया है क्योंकि न्यायालय से भी कुछ तथ्यों की अनदेखी हो सकती है जिन्हें पहले उनके प्रकाश में ना लाया गया हो.. हमारे संविधान द्वारा हमें दिए गए मूलभूत अधिकारों में एक है समानता का अधिकार, दूसरा धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और तीसरा है निजता का अधिकार..। समानता के अधिकार की बात जब हम करते है तो वो राज्य द्वारा प्रदान किये गए अवसरों को लेकर है ना कि समस्त भौतिक और मानसिक विषयों के समान वितरण का मामला है। जिस विषय को यहाँ मुद्दा बनाया गया वो लिंग के आधार पर भेदभाव का मुद्दा है। जहाँ तक हिन्दू धर्म में लिंग के आधार पर भेदभाव की बात है तो स्त्रियों को कितने अधिकार और क्या महत्त्व दिया गया है वो ना तो किसी से छुपा है.. ना ही प्रश्न उठाया जा सकता है और ना ही अभी यहाँ लिखा जा सकता है क्योंकि विषय लम्बा हो जायेगा। यहाँ जो ध्यान देने योग्य है वो यह है कि ये हिन्दू धर्म का विषय नहीं.. बल्कि हिन्दू धर्म के भगवान विशेष का विषय है.. कोई नास्तिक उन्हें हमारा पूर्वज या व्यक्ति विशेष भी कह ले तो कोई आपत्ति नहीं है.. और जब बात भगवान विशेष की हो या व्यक्ति विशेष की.. तो हमारे संविधान के अनुसार उनकी गोपनीयता/निजता की रक्षा का अधिकार यही संविधान और यही न्यायालय हममें से प्रत्येक को देता है। कुछ लोग यह प्रश्न भी उठा सकते है कि भगवन अयप्पा इस समय प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित नहीं है तो उन्हें निजता का अधिकार कैसे दिया जा सकता है लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू धर्म में आत्मा, पुनर्जन्म और अवतार की मात्र अवधारणा ही नहीं है बल्कि करोडो-करोड़ लोगों का अटल विश्वाश भी है और इस विश्वाश को बनाये रखने का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को इसी संविधान से मिला है। करोड़ों लोगों के लिए भगवान अयप्पा आज भी अप्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के साथ ही है। सोचने की बात यह भी है कि यदि कोई अपने इच्छापत्र में किसी बच्चे के नाम कुछ छोड़कर जाता है तो लिंग के आधार पर भेदभाव का दावा करके, दुसरे बच्चों द्वारा उसे निरस्त कराया जा सकता है क्या..? ये न्यायालय का दायित्व बनता है कि करोड़ों लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के साथ ही साथ भगवान अयप्पा के निजता के मौलिक अधिकार और अन्य पहलुओं पर पुनर्विचार करे, जिसकी रक्षा का दायित्व भी इसी संविधान और इसी न्यायालय पर ही है। यहाँ हमारा उद्देश्य न्यायालय के आदेश पर प्रश्नचिन्ह उठाना नहीं है बल्कि उन मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करना है जो हमारे ही समाज का हिस्सा है और समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं से नहीं चलता बल्कि इन्हीं संवेदनाओं के ताने-बाने पर खड़ा होता है। एक ओर जहाँ हमें संवैधानिक दायित्वों का पालन करना है तो दूसरी ओर सामाजिक उत्तरदायित्व भी हमारा स्वयं का है क्योंकि दोनों ही एक दुसरे के पूरक हैं। हमें यहाँ इस बात का ध्यान भी अवश्य रखना होगा कि मंदिर में प्रवेश का विषय सतीप्रथा, देवदासी प्रथा या फिर तीन तलाक की तरह क्रूर सामजिक विषय नहीं है.. यह आस्था का विषय है जो कि पूर्णतयः व्यक्तिगत है और भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की ये परंपरा तो कभी भी नहीं रही है कि सामने वाले की आस्था यदि हमारी आस्था या विचार से नहीं मिलती तो हम उसे आक्रामक तरीके से बदल दें। यह हमारा दायित्व है कि सामने वाले को या तो प्रेमपूर्वक सहमत करें या फिर अपनी आस्था के लिए विकल्प का निर्माण करें क्योंकि आस्था कभी भी आक्रमणकारी नहीं हो सकती। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विवाद जहाँ एक ओर आस्था और मानवीय भावनाओं का प्रश्न बनकर खड़ा है तो दूसरी ओर अहंकार की राजनीति का.. और अगर कोई हार रहा है तो वो हैं हमारी संवेदनाएं..। समाज हमसे और आपसे ही मिलकर बना है और एक दुसरे की अनाक्रमक आस्थाओं का हमें कितना सम्मान करना है ये हमें और आपको मिलकर अवश्य सोचना चाहिए..।

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