एक भरा-पूरा हँसता खेलता हुआ परिवार.. जो चंद समय पहले ही जमींदार के जुल्मो-सितम से मुक्त हुआ था, धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है..। नए कल और नए सपनों के लिए हर तरह की जद्दोजहद कर रहा है। उसे पूरा भरोसा है कि आने वाला कल उसका अपना होगा.. उसके पंखों को नयी उड़ान मिलेगी.. लेकिन कल किसने देखा है..? घर के व्यवस्थापक से जाने-अनजाने कुछ अच्छा भी हो रहा है तो कुछ गलत भी.. लेकिन परिवार को लेकर सब के सपने एक जैसे है, सिवाय कुछ वाहयान्दोलित लोगों के..। परिवार बड़ा होता जा रहा है.. सबकी जरूरतें भी.. और उतनी ही व्यवस्थापक की जिम्मेदारी भी..। एक बड़े परिवार के साथ-साथ घर का मुखिया भी अति-प्रसन्न है कि बच्चो के बच्चो ने भी जिम्मेदारियां संभाल ली है और परिवार धीरे-धीरे खुशहाली की ओर अग्रसर है। कुछ बच्चे आगे निकल गए है तो कुछ थोड़ा पीछे भी रह गए है। उनमे आपस में आगे निकलने की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी है और परिवार को आगे ले जाने की लालसा भी.. परन्तु ऐसा कैसे हो सकता है कि आस पास के वातावरण का प्रभाव इंसान पर न पड़े..? परिवार का एक बच्चा आगे बढ़ता है और घर में चल रही विभिन्न तरह की अव्यवस्थाओं के विरोध में आवाज़ उठाता है। वो उन हर एक पहलुओं को लेकर आवाज़ बुलंद करता है जिसके कारण कुटुंब का भविष्य दांव पर लग सकता है। उसके पास घर की अव्यवस्था को लेकर बहुत सारे आरोपों के साथ-साथ सुझाव भी होते है जिन्हें लेकर कुटुंब आगे बढ़ सकता है। एक बड़ी क्रांति के आधार पर वह घर की समस्त व्यवस्था का दायित्व मांगता है लेकिन परिवार का मुखिया उस पर सम्पूर्ण जिम्मेदारी डालने के बजाय घर के मुख्य कक्ष की जिम्मेदारी सौंप देता है जिससे कि वो मुख्य कक्ष की स्थिति बेहतर करके स्वयं की क्षमता को भी सिद्ध कर सके..।
कहानी यहाँ से एक नया मोड़ लेती है.. घर में अधिकार और सुधार को लेकर एक अंतर्द्वंद शुरू हो जाता है। दो विचारों के टकराव और श्रेय लेने की होड़ में अक्सर एक असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। घर के मुख्य कक्ष में भोजन का भी स्थान है, जहाँ परिवार का कोई भी सदस्य अपने समय और आवश्यकता के अनुरूप कभी भी बैठकर भोजन कर सकता है लेकिन मुख्य कक्ष के नवनियुक्त व्यवस्थापक ने एक नया नियम बना दिया। परिवार के दुसरे सदस्य जो अन्य कक्षों में निवास करते हैं वो मुख्य कक्ष में भोजन के स्थान का मात्र आधा भाग ही प्रयोग कर सकते है जबकि आधा भाग मुख्य कक्ष के स्थायी लोगों के लिए आरक्षित रहेगा। ये वही व्यवस्थापक है जिनको सम्पूर्ण कुटुम्ब के भविष्य को लेकर चिंता थी। बहुत सारे क्रांतिकारी विचारों के साथ सम्पूर्ण परिवार को समग्र रूप से आगे ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी.. लोगों के बीच एकरूपता और अपनापन विकसित करने की चाह व्यक्त की थी लेकिन परिवार के एक भाग की जिम्मेदारी मिलते ही, उसी परिवार को हिस्सों में बांट दिया..। जिन्होंने कभी परिवार को जोड़ने और सम्पूर्ण परिवार की व्यवस्था को संभालने की इच्छा जताई थी, जाने-अनजाने उन्ही का दृष्टिकोण आज संकीर्ण हो चुका था क्या..?
आप सोच रहे होंगे कि ये कोई कहानी है या फिर हकीकत.. आखिर हम किस परिवार की बात कर रहा हैं, तो बताते चलते है कि ये हमारे और आपके परिवार की ही कहानी है जो न तो मात्र कोरी कल्पना है और ना ही पूर्ण सत्य.. ये कहानी इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि हमारा परिवार के प्रति नजरिया और दायरा समय के साथ-साथ कैसे संकुचित होता चला जा रहा है। जो व्यक्ति सम्पूर्ण परिवार के सपनों को लेकर आगे बढ़ने का दावा करता है वही जाने-अनजाने परिवार के भेद का कारण बनने लगता है। अल्प-काल का स्वार्थ दीर्घ-काल में परिवार के विखंडन का आधार बन जाता है। इस कहानी का प्रतिरूप आपको आस-पास लगभग हर जगह दिखाई पड़ सकता है जिसके कारण परिवार छोटा ही नहीं होता बल्कि दीर्घ-स्वरुप में पारिवारिक-संघर्ष के माध्यम से आगे की राह भी दुष्कर कर देता है।
इस कहानी का ज्वलंत उदाहरण आपको दिल्ली में देखने को मिल जायेगा, जहाँ दिल्ली सरकार ने निर्णय लिया है कि जी. बी. पंत अस्पताल में दिल्ली के मरीजों के लिए आधे बिस्तर आरक्षित कर दिए जाएँ और कारण बताया है कि बाहरी मरीज़ों की वजह से दिल्ली वालों को इलाज नहीं मिल पा रहा है। अब सोचने कि बात ये है कि यह वही आप की सरकार है जो सम्पूर्ण देश को एक नयी राजनीति और दिशा देने का दावा करती है। दिल्ली की जिम्मेदारी मिलते ही जाने-अनजाने अपने कुनबे को ही दो भागों में बाँटने का कार्य किया जा रहा है.. इस तरह के लोक-लुभावन फैसले लेने के बजाय, ये बेहतर नहीं होता कि लोगों के लिए बेड और सुविद्याएँ बढ़ाने पर ध्यान दिया जाता..? जबकि कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि जी. बी. पंत अस्पताल में ज्यादातर मरीज़ दिल्ली के ही होते हैं औऱ सरकार ने ये फैसला अस्पताल के आंकड़ों को जाने बिना किया है। इस आधार पर देखा जाये तो इस तरह के फैसले मात्र कुछ लोगों के तुष्टिकरण के लिए ही है जो लोगों को क्षेत्रीय आधार पर बांटने के अलावा कोई सकारात्मक लाभ नहीं प्रदान कर सकते। कोई कैसे ये भूल सकता है कि दिल्ली एक महानगर होने के अलावा देश की राजधानी भी है। जब भी देश में कोई किसी विषय को लेकर निराश होता है तो उसकी आखिरी उम्मीद दिल्ली पर ही टिकी होती है। दिल्ली एक आम आदमी के लिए उस आशा के किरण के समान है जहाँ उसे लगता है कि भारत ही नहीं, शायद विश्व की सबसे बेहतर चिकित्सा सुविधाओं में से एक चिकित्सा सुविधा उसे दिल्ली में मिल सकती है। उस आम आदमी को ये विश्वास होता है कि यदि कहीं कोई इलाज संभव है तो दिल्ली उसे मायूस नहीं करेगी..। देश का आम आदमी अभी इतना समृद्ध नहीं हुआ है कि हर कोई निजी-अस्पतालों का खर्च वहन कर सके.. फिर आज आम आदमी की बात करने वाले लोग ही उस आम आदमी को क्यों मायूस कर देना चाहते है..? क्या वोट ही हर सुविधा, हर संवेदना, हर अधिकार को मापने का पैमाना रह गया है..? क्या हमारे हित हमारी संवेदनाओं से ऊपर हो गए हैं..? हमें उन सारे पहलुओं पर सोचने की जरूरत है जिन्हे हम आगे बढ़ने की दौड़ में दरकिनार करते चले जा रहे हैं..। दिल्ली की सरकार अर्थात आप की सरकार को हमारे और आप के परिवार को समग्र रूप में स्वीकार करने और अपने फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है और हमें पूरी उम्मीद है की वो इस परिवार और उसकी उम्मीदों के विषय में पुनर्विचार अवश्य करेगी।
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