अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून): योग मात्र व्यायाम नहीं, स्वास्थ्य का परम विज्ञानं है

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून): योग मात्र व्यायाम नहीं, स्वास्थ्य का परम विज्ञानं है

मन, शरीर का सूक्ष्मतम रूप है और शरीर, मन का स्थूल रूप है.. इसे हम कई सन्दर्भों में समझ सकते है.. जैसे स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है और स्वस्थ मस्तिष्क से ही एक स्वस्थ शरीर का विकास होता है.. यह यथार्थ कई तरह से व्यक्त किया जा सकता है क्योकि मन की ही पांच अवस्थाएं है जिन्हे हम क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, एकाग्र और निरुद्ध के नाम से जानते है.. और ये पाँचों अवस्थाएं, हमारे शरीर और मन का समन्वित स्वरुप है, जो हमें व्यक्त स्वरुप प्रदान करती है और हमारे संसार का निर्माण करती है.. ठीक वैसे ही, जैसे दो पहलू के होने से ही, एक सिक्के का निर्माण संभव है.. दो किनारों के होने से ही, नदी का होना संभव है.. और दो छोरों के होने से ही ब्रह्माण्ड का होना संभव है..| जैसे एक भी पहलू के विकृत होते ही सिक्का खोटा हो जाता है ठीक उसी प्रकार शरीर या मन के अस्वस्थ होते ही किसी एक व्यक्ति का पूरा संसार विकृत हो जाता है.. इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम एक स्वस्थ संसार के निर्माण के लिए, शरीर और मन के समन्वित स्वास्थ्य पर कार्य करें.. और यही समन्वित स्वास्थ्य योग है.. योगा है.. जिसे हम संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमोदन के पश्चात्, आज 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मना रहे हैं, लेकिन समझने का विषय यह है की योग एक दिन का विषय नहीं है बल्कि एक जीवन का विषय है जिसे हमें समझने का प्रयास करना चाहिए|

योग (योगा) कोई विश्वाश अथवा मान्यता नहीं, बल्कि एक विज्ञानं है.. जो स्थापित प्रयोग करने पर ही नहीं, बल्कि अनुभव करने पर जोर देता है.. और अनुभव का अर्थ है मन (आंतरिक) और शरीर (वाह्य) का समन्वित प्रतिबिम्बन, जो हमारे व्यक्तित्व के निर्माण की इकाई है..! जैसा की हमने पहले कहा की सांसारिक व्यवस्था में हमें समस्त यात्राएं एक शिरे से आरम्भ करनी होती है, उसी प्रकार सामान्य जन के लिए महिर्ष पतंजलि ने योग को आठ अंगों में व्यवस्थित किया है-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः।
1- यम
2- नियम
3- आसन
4- प्राणायाम
5- प्रत्याहार
6- धारणा
7- ध्यान
8- समाधि

उपरोक्त में पांच चरण बहिरंग साधन है जिनका अधिकतम प्रभाव हमारे शरीर पर होता है और अंतिम तीन अंतरंग साधन है जिनका अधिकतम प्रभाव मन पर होता है.. और जिससे हमारी संभावना का द्वार खुलता है| यदि हम योग की बात करें तो योग का इतिहास अति प्राचीन है जिसमें योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है लेकिन जिनसे योग के प्रत्येक सूत्र का उद्भव हुआ, और जिसे बाद में वैदिक ऋषि-मुनियों ने आगे ले जाने का कार्य किया, वो आदियोगी है, वही महेश्वर है.. बाद में कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि ने योग के माहात्म्य को आगे ले जाने का कार्य किया और 400 ई॰ पूर्व महर्षि पतंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप देकर योगसूत्र के नाम से संकलित किया। योगसूत्र को मध्यकाल में 40 भारतीय और प्राचीन जावा एवं अरबी भाषा में अनुवादित किया गया लेकिन यह ग्रंथ 12वीं से 19वीं शताब्दी तक मुख्यधारा से लुप्तप्राय हो गया था जो 19वीं शताब्दी में पुनः प्रचलन में आया। इस विधा के माहात्म्य और प्रभाव को देखते हुए 19वीं, 20वीं और फिर 21वीं शताब्दी में कई महापुरुषों ने योग को पुनः जन अभ्यास बनाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी कड़ी में 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के अपने भाषण में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक रूप में अपनाने का आव्हान किया जिसके बाद 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 177 सदस्यों द्वारा 21 जून को “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” के रूप में मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। यह संयुक्त राष्ट्र संघ में 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से सबसे कम समय पारित होने वाला दिवस प्रस्ताव बना जो योग की उपयोगिता और स्वीकार्यता का सहज प्रमाण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अपने भाषण में कहा-

“योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन- शैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को गोद लेने की दिशा में काम करते हैं।”
—नरेंद्र मोदी, संयुक्त राष्ट्र महासभा

महर्षि पतंजलि उन महापुरुषों में है जिन्होंने हजारों वर्षों से प्रचलित प्राचीन योग को धर्म से विज्ञानं का रूप दे दिया जो मान्यताओं पर नहीं, अनुभव पर, प्रयोग पर जोर देता है। योग हमसे किसी विश्वाश, आस्था या शृद्धा की अपेक्षा नहीं करता, बल्कि प्रयोग करने के साहस एवं सामर्थ्य की अपेक्षा करता है और एक निश्चित परिणाम का आश्वासन देता है क्योंकि योग एक अस्तित्वगत प्रयोग है। महर्षि पतंजलि मनुष्य के अंतस जगत के अन्वेषण स्वरुप ठीक वैसे ही सूत्रों का प्रतिपादन करते है जैसे गणितीय सूत्र, भौतिक सूत्र.. और इन सूत्रों के प्रायोगिक परिणाम भी सामान रूप से ही निश्चित है। महर्षि पतंजलि ने अनुशासन को योग का द्वार कहा है जिसका अर्थ है स्वयं के अंतस में एक ऐसी व्यस्था को निर्मित करना जिसमें चित्त की अवस्था या तो एकाग्र हो अथवा निरुद्ध.. क्योंकि इन्ही दोनों अवस्थाओं में ही शरीर और मन का योग संभव है। योग बिमारियों के निवारण का साधन नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के उच्च स्थान को प्राप्त करने का विज्ञानं है इसलिए योग को चिकित्सा विज्ञानं समझना भ्रामक होगा क्योंकि जिसे हम चिकित्सा विज्ञानं कहते है उसका सम्बन्ध रोग से है जबकि योग का सम्बन्ध स्वास्थ्य से है। जब योग अनुशासन की बात करता है तो उसका अभिप्राय शरीर और मन के समन्वय की ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होता है, जहाँ दोनों एक दुसरे के विरोध में ना होकर एक दुसरे के पूरक हो जाते है.. सहयोगी हो जाते है और शरीर एवं मन का यह समन्वय ही एकाग्रता की कुंजी है.. लेकिन एकाग्रता के साथ ही एक और घटना घटित होती है कि मन विलीन हो जाता है क्योंकि मन की चंचलता ही मन का होना है और मन के एकाग्र होते ही, स्थिर होते ही, मन गिर जाता है जिसका अर्थ है मन और शरीर दो नहीं रहे.. जो कुछ भी पीछे बचा है वो दोनों का समन्वित स्वरुप है और महर्षि पतंजलि के शब्दों में यही योग है जहाँ अंतस में दो नहीं रह जाते.. और एक ऐसी अवस्था घटती है जो है पूर्ण अनुशासन की अवस्था.. क्योंकि अब उपद्रव के लिए दूसरा शेष नहीं रहा..।

योग मात्र इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वो भारतीय परंपरा और संस्कृति का अंग है बल्कि इसलिए महत्वपूर्ण है क्योकि वो शरीर और चित्त की शुद्धिकरण का शुद्ध विज्ञानं है, और इसे किसी धर्म अथवा परंपरा तक सीमित करना सम्पूर्ण मानवता के साथ छल होगा। योग पर अधिकार अथवा योग का विरोध, दोनों ही मानवता के दोषी है फिर वो व्यक्तिगत आधार पर हो, या फिर सामजिक आधार पर अथवा धार्मिक आधार पर.. क्योंकि योग, स्वास्थ्य की उच्च स्थिति को स्थापित करने का विज्ञानं है और इसे किसी वर्ग से जोड़कर देखना, विज्ञानं को वर्ग विशेष की सीमा में बाँधने जैसा है। पिछले कुछ वर्षों में भारत की सरकार द्वारा योग के प्रति लोगों को जागरूक करने का एक सतत प्रयास और विश्व समुदाय द्वारा योग की स्वीकार्यता इस बात की द्योतक है समस्त विश्व में स्वास्थ्य और जीवन-शैली को लेकर एक सकारात्मक जिज्ञासा का उद्भव हुआ है। अब हमें आवश्यकता है तो इस बात पर जोर देने की कि योग मात्र “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” का एक आयोजन बनकर ना रह जाये, बल्कि लोगों की जीवन शैली बन सके जिससे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ समाज का निर्माण हो..।

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