भारतीय सभ्यता और इतिहास

भारतीय समाज को बाँटने हेतु इतिहास के कुछ बड़े झूठ

 

इतिहास ना सिर्फ हमारे अतीत का दर्पण होता है बल्कि भविष्य की दिशा और संभावित रूपरेखा भी होता है| इतिहास ना सिर्फ गौरव का एहसास देता है बल्कि गलतियों को समझने और सुधारने का मौका भी देता है.. लेकिन जब उसी इतिहास को किसी वर्ग-समूह के लिए ग्लानि और किसी समाज के तुष्टिकरण के लिए प्रयोग किया जाने लगे तो निश्चितरूप से ऐसा इतिहास देश और समाज को बांटने का कार्य करता है..| इन ऐतिहासिक साजिशों के पीछे कुछ ऐसी ताकतें जरूर होंगी जो समाज को तोड़ने में अपना कुछ स्वार्थ देख रही होगी| हमने देखा है कि सही जानकारी ना होने के कारण हमारे देश के ही कुछ राजनीतिज्ञों ने समाज और देश में किस प्रकार असंतोष फ़ैलाने का कार्य किया है| सदियों की गुलामी ने हमें इस तरह प्रभावित किया कि हमने स्थानीय इतिहास को नष्ट करके उस विचारधारा की राह पकड़ ली जो हम पर समय के साथ धीरे-धीरे लादी गयी लेकिन इस बात का आश्वाशन कौन देगा कि गुलामों के इतिहास को नष्ट करने वाले गुलामों को छोड़ देंगे..| कुछ ऐसे ही प्रश्नों को हमने यहाँ रखने की कोशिश की है, जिसके आधार पर हमारे समाज और देश को बांटने की साजिश तैयार की गयी-

भारत के इतिहास की शुरुआत सिंधु घाटी सभ्यता से होती है..?

१९२१ ई. में की गयी खुदाई के आधार पर ये निर्धारित हुआ कि सिंधु घाटी सभ्यता ३३०० से १७०० ईसा पूर्व अस्तित्व में थी जिसने उन तर्कों को झुठलाया कि प्राचीन भारत के इतिहास की शुरुआत १२०० ईसापूर्व से २४० ईसा पूर्व के बीच हुई थी। लेकिन वर्तमान बलूचिस्तान (पाकिस्तान) के कच्ची मैदानी क्षेत्र मेहरगढ़ में १९७७ ई० मे की गयी खुदाई में मेहरगढ़ सभ्यता का पता चला जो लगभग लगभग ७००० से ३३०० ईसा पूर्व अस्तित्व में थी| इस खुदाई में प्राचीनतम कृषि एवं पशुपालन से सम्बन्धित साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जिससे पता चलता है कि यहाँ के लोग गेहूँ एवं जौ की खेती करते थे तथा भेड़, बकरी एवं अन्य जानवर पालते थे। मेहरगढ़ से प्राप्त एक तांबे की ड्रिल बहुत कुछ आधुनिक दाँत चिकित्सकों की ड्रिल से मिलती जुलती है। अभी तक की इस खुदाई में यहाँ से नवपाषण काल से लेकर कांस्य युग तक के प्रमाण मिलते है जो कुल ८ पुरातात्विक स्तरों में बिखरे हैं और लगभग ५००० वर्षों के इतिहास की जानकारी देते हैं। इनमें सबसे पुराना स्तर जो सबसे नीचे है, नवपाषण काल का है और आज से लगभग ९००० वर्ष पूर्व का है वहीं सबसे नया स्तर कांस्य युग का है और तकरीबन ४००० वर्ष पूर्व का है। इन शोधों से पता चलता है कि सिंधु-सरस्वती सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यता थी जो वर्तमान अफगानिस्तान से भारत तक सिंधु और सरस्वती नदी के बीच बसी थी लेकिन दुर्भाग्यवश पाकिस्तान की अस्थिरता और उसके हुक्मरानों की भारतीय सभ्यता के बजाय अरब से खुद को जोड़कर देखने के कारण यह महत्वपूर्ण स्थल उपेक्षित पड़ा है।

सरस्वती नदी का कोई अस्तित्व नहीं था..?

सरस्वती नदी के अस्तित्व पर आधुनिक इतिहासकारों द्वारा प्रश्न उठाने का मुख्य कारण उसका वेदों में उल्लिखित होना है| पाश्चात्य विद्वानों से प्रभावित भारतीय इतिहासकारों ने भी एक समय तक, कोई शोध ना करके, उसी धारणा को आगे बढ़ाने का कार्य किया क्योंकि एक समय वेद माइथोलॉजी (Mythology) घोषित किये जा चुके थे और यदि ऋग्वेद की ऋचाओं को सरस्वती नदी के किनारे बैठकर लिखने को स्वीकारोक्ति मिलती, तो भारतीय हिन्दू सभ्यता की महानता का एक नया अध्याय भी खुल सकता था। एक अमेरिकन उपग्रह द्वारा भूमि के अंदर दबी इस नदी के चित्र के आधार पर अहमदाबाद के रिसर्च सेंटर ने यह यह निष्कर्ष निकाला कि शिमला के निकट शिवालिक पहाड़ों से कच्छ की खाड़ी तक भूमि के अंदर किसी सूखी नदी का तल है, जिसकी चौड़ाई कहीं-कहीं ६ मीटर है। सेटेलाइट द्वारा भेजे गए चित्रों से पूर्व भी बहुत से भूगर्भ खोजकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि किसी समय सतलुज और यमुना नदी इसी नदी में मिलती थी। केन्द्रीय जल बोर्ड के वैज्ञानिकों को हरियाणा और पंजाब के साथ साथ राजस्थान के जैसलमेर जिले में सरस्वती नदी की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं।

आर्य वाह्य आक्रमणकारी थे जबकि द्रविड़ भारत के मूल निवासी हैं..?

यूरोपीय विद्वानों और सैकड़ों वर्षों की गुलाम मानसिकता से प्रभावित कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी जोर-शोर से प्रचारित किया कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं है बल्कि बाहर से आकर यहाँ बसे। मैकाले की शिक्षा व्यवस्था और बांटने की राजनीति से प्रेरित लोगों ने हमें समझाया कि आर्य बाहर से आए हैं। किसी ने समझाया कि आर्य सेंट्रल एशिया से भारत में आये तो किसी ने समझाया कि साइबेरिया से.. कोई मंगोलिया बताता है तो कोई ट्रांस कोकेशिया.. तो कुछ लोगों ने आर्यों का पता स्कैंडेनेविया बताया.. और इसे नाम दिया आर्यन इन्वेजन थ्योरी का.. लेकिन आज तक इस बात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाए। मैक्स मूलर ने जानबूझकर एक सिद्धांत गढ़ा कि आर्य घुमन्तु थे और कबीलों में रहते थे। उनके अनुसार आर्य अपने साथ वेद, रथ आदि लेकर चलते थे और उनकी अपनी एक भाष्य-लिपि भी थी.. जो अपने आप में पढ़े-लिखे, सभ्य, सुसंस्कृत खानाबदोशों का वैश्विक इतिहास में एक अनोखा उदाहरण है। १९२१ में जब सिंधु घाटी सभ्यता के निशान कई जगह मिलने लगे तो मैक्स मूलर द्वारा गढ़ी गयी आर्यन इन्वेजन थ्योरी को एक बड़ा धक्का लगा, जिसके बाद इस सिद्धांत को परिवर्तित करके यह प्रचार किया जाने लगा सिंधु घाटी सभ्यता के लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य थे, जो बाहर से आये थे। यह एक ऐसी साजिश थी जिसके माध्यम से भारतीय समाज को दो वर्गों में बांटने की कोशिश की गयी और इस थ्योरी को हमारे यहां के वामपंथी इतिहासकारों ने जमकर प्रचारित किया। नयी खोजों ने इस बात को प्रमाणित किया है कि ना तो आर्य और द्रविड़ दो पृथक मानव नस्लें हैं और ना ही भारतीय कालखंड में आर्यों के आक्रमण जैसी कोई घटना हुयी है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वालों का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग १३००० नमूनों का कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने परीक्षण किया और अपने अनुसंधान में पाया कि ९९ प्रतिशत भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं। यहां तक कि जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए। इसी प्रकार के एक अन्य अनुसन्धान में अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है। ऐसी कई खोजों के माध्यम से ये बात आसानी से समझी जा सकती है कि विदेशियों की विभाजन नीति का पालन करने वाले लाखों लोग आज भी हमारे देश में है जिन्होंने समाज में एक भ्रम फैलाया कि आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे और उन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां के द्रविड़ लोगों को दास बनाया।

श्रीराम और श्रीकृष्ण पौराणिक एवं काल्पनिक पात्र है जो कभी हुए नहीं..?

अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन ज्ञान-राशि, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को ‘मिथ’ कहा और उसी का अनुकरण किया वामपंथी इतिहासकारों और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने..। हमारी स्वयं की उपेक्षा ने हमारे इतिहास को प्रमाणों के अभाव में एक प्रकार से माइथोलॉजी (Mythology) सा बना दिया.. पुराण किवदंती से बन गए.. और रामायण, महाभारत को रूपक का रूप मिल गया। पाश्चात्य विद्वानों ने उन सभी भारतीय ज्ञान-राशियों को माइथोलॉजी घोषित कर दिया जिसे वे समझने में असमर्थ रहे या फिर जान-बूझकर समझना नहीं चाहा। यही कारण है कि उन्ही शास्त्रों पर, उन्ही पश्चिमी देशों में आज फिर से एक नए सिरे से अनुसन्धान चल रहे है। गौर से देखा जाए तो भारतीय ज्ञान-राशियों को माइथोलॉजी घोषित करने के पीछे सबसे बड़ा कारण भारतियों को उनके धर्म, संस्कृति और इतिहास से काटना था। ऐसी स्थिति तब थी जब रामायण और महाभारत में वर्णित स्थान, परिस्थितियां और प्रमाण जगह-जगह बिखरे पड़े थे। वर्तमान में की गयी कई शोधों में से अधिकतर शोधकर्ता प्रोफेसर तोबयस के शोध से सहमत हैं कि राम का जन्म १० जनवरी को १२ बजकर २५ मिनट पर ५११४ ईसा पूर्व हुआ था। इसी तरह की एक अहम् बात साइंस चैनल ने अपने हाल ही के शोध में बताया.. जब उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक विश्लेषण कहता है कि भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले पौराणिक रामसेतु (Adam’s Bridge) का अस्तित्व है। जिन श्रीराम के अस्तित्व को भारत में ही धर्मनिरपेक्षता के नाम पर काल्पनिक कहकर प्रचारित और उपेक्षित किया गया उन्ही के अस्तित्व को लेकर श्रीलंका की सरकार ने रामायण के आधार पर अपने यहाँ कई अनुसन्धान किये है और उनसे जुड़े कई स्थलों को संरक्षित करने का कार्य किया है। श्रीकृष्ण के अस्तित्व को लेकर अनेकों साक्ष्य भारतीय महाद्वीप में बिखरे पड़े है, जिनका पौराणिक उल्लेख किया गया है। समुद्र के तल में मौजूद प्राचीन द्वारिका के अवशेष जैसे कई साक्ष्य श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता की ओर ही इंगित करते है। द्वारिका में मिले अवशेषों को भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने प्रमाणित किया है कि वे लगभग ९५०० वर्ष पुराने थे। यदि वैचारिक दृष्टि से भी देखेंगे तो निःसंदेह कह सकते है कि यदि श्रीमद्भगवतगीता जैसा ग्रन्थ आज उपलब्ध है तो उसे वाणी देने वाला व्यक्ति निश्चितरूप से ग्रंथों और पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण जैसा ही होगा..।

त्रेतायुग में दलित द्वारा तपस्या निषेध थी और श्रीराम ने शम्बूक-वध किया था..?

वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में वर्णित शम्बूक-वध के आधार पर राजनीतिक कारणों से वामपंथी चिंतकों ने इस मत को प्रचारित करने का कार्य किया कि सतयुग में दलितों द्वारा तपस्या निषेध थी और श्रीराम ने इसी कारण शम्बूक नामक तपस्वी का वध कर दिया था। इस तरह के दुष्प्रचारों ने भारतीय समाज को बांटने का कार्य तो किया ही.. साथ ही साथ श्रीराम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श चरित्र को धूमिल करके हिन्दू धर्म पर भी ऊँगली उठाने का प्रयास किया। अब सोचने की बात है कि पूरी रामायण में राम के अत्युतम आदर्श चरित्र को वर्णित करने के उपरान्त अंत में श्रीराम का ऐसा गर्हित चरित्र चित्रण महर्षि वाल्मीकि जैसे कवि कैसे कर सकते है.. जिस वाल्मीकि रामायण की उत्पत्ति क्रौंच वध की करुणा से हुयी हो, उसी के एक प्रसंग में शंबूक-वध का उल्लेख करते हुए आदिकवि वाल्मीकि, क्या अंदर तक टूट ना गए होते..? ऐसा तब है जबकि दुनियाभर में प्रचलित ३०० से ज्यादा रामायण में से अधिकाँश में शम्बूक-वध जैसी किसी घटना का उल्लेख नहीं है.. यहाँ तक कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ में उत्तरकाण्ड तक का उल्लेख नहीं है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि भारतीय ग्रंथों और जन-मानस के साथ कोई न कोई खेल अवश्य हुआ है, जिस पर हमने “रामायण: क्रौंच-वध से शम्बूक-वध के आधुनिक प्रयासों तक” में प्रकाश डालने का प्रयास किया है।

मनुस्मृति और श्रीरामचरित मानस दलित विरोधी है..?

मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते.. अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं लेकिन इस तरह के श्लोकों को उपेक्षित करके उन श्लोकों का जोर-शोर से प्रचार किया गया जो शूद्र की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाते है। ये कुछ इसी प्रकार की बात हुयी कि गणित के आधारभूत सूत्रों को उपेक्षित करके उसके माध्यम से प्रतिपादित सिद्धांतों को गलत सिद्ध करने का प्रयास किया जाये। किसी बालक के व्यस्क होने की सम्भावना से ध्यान हटाकर उसे बालक होने की उलाहना दी जाए। ये उलाहना निश्चितरूप से दोनों ही स्थितियों में गलत होगी.. चाहे वो वयस्कों द्वारा दंभवश दी जा रही हो या फिर किसी बालक के ही द्वारा उस बालक के भावनात्मक शोषण के लिए..। वर्तमान दौर में ब्राह्मणवाद और मनुवाद को पर्यायवाची और नकारात्मक अर्थों में उपयोग किया जाता है लेकिन समझने की बात यह है मनु ने ऊपर के श्लोक में स्पष्ट किया है कि वर्ण-व्यवस्था जन्मगत नहीं, बल्कि कर्मगत है। ये अपने आप में इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि जिन लोगों ने इस प्रकार का दुष्प्रचार किया है या तो वे मनु को समझने में असमर्थ हैं या फिर जानबूझकर स्वार्थवश ना तो समझना चाहते है और ना ही समझाना..। इस बात को ऐसे देखें कि आज के समय में किस प्रकार एक नेता चाहता है कि उसकी नयी पीढ़ी नेता बने.. एक डाक्टर अपने बेटे या बेटी को डाक्टर बनाना चाहता है और सेना का व्यक्ति सैनिक..। कल को इस बात का क्या आश्वाशन है कि सक्षम होने पर यही लोग इसे जन्मगत ना बना दें.. तो क्या हम वर्तमान संविधान लिखने वाले और इस तरह की व्यवस्था देने वालों को दोषी ठहरा देंगे..? उसी प्रकार देखा जाये तो महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं जिन्होंने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए व्यवस्थाएं दी हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र आज विभिन्न इकाइयों में बंट गया है जहाँ आँख का डाक्टर हड्डी का इलाज नहीं कर सकता.. और हड्डी का डॉक्टर आँख का नहीं.. परन्तु प्राचीन समय में एक वैद्य अधिकतम क्षेत्रों में पारंगत होता था, ठीक उसी भांति वैदिक दर्शन में संविधान या कानून धर्मशास्त्र का ही अंग होते थे। इस प्रकार मनुस्मृति वेदों के अनुकूल मानव समाज का प्रथम संविधान और न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। इसलिए किसी एक सूत्र को बिना समझे सम्पूर्ण धर्म सिद्धांत पर ऊँगली उठाना अबोधता के सिवाय कुछ नहीं..। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है। मनु ने जिन चार वर्णों का उल्लेख किया है वे जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं। उस पर एक भ्रम और फैलाया जाता है कि ये चारों वर्ण उर्ध्वाकार रूप से विभक्त है जिसमें एक ऊपर है और दूसरा नीचे.. जबकि ये क्षैतिज रूप से विभक्त है जो ना तो किसी के ऊपर है और ना ही कोई किसी के नीचे..। ‘श्री रामचरित मानस’ के दलित विरोध की सच्चाई के विषय में आप “रामायण: क्रौंच-वध से शम्बूक-वध के आधुनिक प्रयासों तक” में पढ़ सकते हैं इसलिए मनुस्मृति के एक और श्लोक का उल्लेख करके, मैं इस विषय और जाति-व्यवस्था के इतिहास को आगे विस्तारपूर्वक लिखने के लिए छोड़ता हूँ जहाँ महर्षि मनु ने कहा है..

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (१०/६५)
अर्थात कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।

राजा पोरस सिकंदर से पराजित हो गए थे..?

पाश्चात्य विद्वानों द्वारा राजा पोरस के विषय में जो जानकारी प्रामाणिक मानी गयी थी वो ग्रीक स्रोतों पर आधारित थी इसलिए भारतीय विद्वानों द्वारा भी ये मान लिया गया कि राजा पोरस सिकंदर से पराजित हो गए थे। ग्रीक साहित्यों में लिखा है कि पोरस की बहादुरी को देखते हुए सिकंदर ने उसे माफ़ कर दिया लेकिन ग्रीक विद्वान प्लूटार्क ने लिखा है कि आठ घंटे के इस युद्ध में किस्मत ने सिकंदर का साथ नहीं दिया। उसी प्रकार कुछ भारतीय इतिहासकार भी दावा करते है कि इस युद्ध में सिकंदर बुरी तरह पराजित हुआ था लेकिन यदि ये सच होता तो सिकंदर व्यास नदी के तट तक नहीं पहुँच पाता। स्पष्टतः राजा पोरस और सिकंदर के मध्य एक संधि हुयी जिसकी पृष्ठभूमि में पोरस की वीरता और विवेक का समन्वय दिखता है क्योकि सिकंदर की विशाल सेना में तक्षशिला और अभिसार के भारतीय सैनिक भी शामिल थे। इस संधि में राजा पोरस को सिकंदर की सैनिक सहायता करनी थी और सिकंदर को व्यास नदी के तट तक जीते हुए समस्त राज्य, राजा पोरस को देने थे, जिन पर राजा पोरस, सिकंदर के मित्र की तरह शासन करते। कर्टियस, जस्टिन, डियोडोरस, ऐरियन और प्लूटार्क जैसे विद्वान इस सन्दर्भ में विश्वसनीय और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराते हैं कि सिकन्दर पोरस से पराजित हुआ था और उसे अपनी तथा अपने सैनिकों की जीवन रक्षा के लिए पोरस से सन्धि करनी पड़ी थी। भारत का “विजय अभियान” उसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ और भारत से वापसी के समय उसकी सारी आशाएं धूमिल हो चुकी थीं। इस विषय पर एक अन्य लेख “राजा पोरस – ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित एक नायक” में ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाक्रम और भ्रांतियों के बारे में विस्तार से समझ सकते है।

महाराजा विक्रमादित्य कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं बल्कि काल्पनिक व्यक्ति है..?

महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है जिनका नाम विक्रम सेन था। महाराजा विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता की उपेक्षा के कई कारण रहे है जैसे कि यदि पुराणों को माइथोलॉजी सिद्ध करना है तो उनमें उल्लिखित प्रत्येक चरित्र को काल्पनिक मानना ही पड़ेगा। दूसरा एक बड़ा कारण ये था कि महाराजा विक्रमादित्य के कालखंड में अज्ञानता को सिद्ध करना था क्योकि उनके अनुसार दुनिया उस समय अज्ञानता में जी रही थी और महाराजा विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को स्वीकार करते ही पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा गढ़े गए कालखंड और सभ्यताओं में उथल-पुथल मच जाता। तीसरा एक कारण ये भी था कि उनकी ऐतिहासिकता को स्वीकार करते ही अकबर की महानता छोटी पड़ जाती, जबकि कुछ भारतीय इतिहासकारों को अकबर को महान सिद्ध करना था। ऐसे ही कई और कारण है जिससे भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य के इतिहास को नहीं पढ़ाया जाता है। गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित भविष्यपुराण से इस बात का पता चलता है कि कलि काल के ३००० वर्ष बीत जाने पर १०१ ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ और १०० वर्ष तक उन्होंने राज किया। विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे और उनका शासन अरब और मिस्र तक फैला था। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे, जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं और इसका उल्लेख ३०६८ कलि अर्थात ३४ ईसा पूर्व में लिखे गए ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ में मिलता है। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने ३०४४ कलि अर्थात ५७ ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया। नेपाली राजवंशावली के अनुसार, नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख भी मिलता है। विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद कई राजाओं जैसे श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि को ‘विक्रमादित्य उपाधि’ दी गयी जिससे थोड़ी भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है लेकिन चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्द समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय का जन्म महाराजा विक्रमादित्य के बाद ३०० ईस्वी में हुआ। इस विषय पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि हमें भारतीय इतिहास की तटस्थता के साथ पुनर्आकलन की आवश्यकता है।

वास्को डी गामा ने भारत की खोज की थी..?

हालांकि आजकल पढ़ाया जाने लगा है कि भारत के समुद्री मार्ग की खोज वास्को डी गामा ने की थी लेकिन अभी भी भारतीय बच्चों को यह भी पढ़ाया जा रहा है कि भारत की खोज वास्को डी गामा ने की। दरअसल यूरोप मसाले, मिर्च आदि अरब के देशों से खरीदता था और अरब देश के कारोबारी उसे यह नहीं बताते थे कि यह मसाले वह पैदा किस जगह करते हैं। इसी खोज में कोलंबस की यात्रा के करीब 5 साल बाद पुर्तगाल के नाविक वास्को डा गामा भारत के समुद्री मार्ग को खोजने निकले और २० मई १४९८ को कालीकट तट पर पहुंचे जो कि केरल राज्य का एक नगर और पत्तन है। यहाँ समझने की बात यह है कि भारत का लिखित इतिहास भी वास्को डी गामा के आने से बहुत पहले का है लेकिन इतने समय तक अभी भी यह क्यों पढ़ाया जा रहा है कि वास्को डी गामा ने भारत की खोज की थी..? या तो भारतीय इतिहासकार इतने अबोध थे कि उन्हें इस वाक्य का अर्थ समझ में नहीं आया या फिर वो किसी स्वार्थवश पश्चिमी इतिहाकारों के अंध-अनुयायी बने रहे। प्रत्येक विषय की तरह इतिहास में भी दृष्टिकोण का बहुत महत्त्व है। दृष्टिकोण बदलते ही इतिहास बदल जाते है और यही भारतीय इतिहास के साथ भी हुआ.. क्योंकि अभी भी कुछ भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिमी चश्मे को उतार नहीं पाए हैं।

इसी प्रकार कुछ तथाकथित अंध इतिहाकारों ने शिवाजी को भी धोकेबाज, लूटेरा और पहाड़ी चूहा तक कहा लेकिन उनमें से कई तो रहे नहीं.. और जो हैं भी उनकी वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा कहने कि हिम्मत नहीं है.. क्योंकि उन्हें ये पता है कि आज के डिजिटल युग में हर बात लोगों तक कितनी आसानी से पहुँचती है। समाज साक्षर हुआ है और ज्ञान के तंत्र लोगों को आसानी से सुलभ है.. जिससे कि लोग अपने विवेक का प्रयोग करके सही और गलत का निर्णय आसानी से कर सकें। अन्यथा एक समय ऐसा भी था कि यही लोग बंद कमरों में बैठकर देश और समाज के जन-मानस में धीरे-धीरे जहर घोलने का कार्य करते थे। उन क्षद्म बुद्धिजीवियों की तरह, शाश्वत सत्य जान लेने का दावा तो हम नहीं कर सकते लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि भारतीय इतिहास को तटस्थरूप से समझने की एक प्रक्रिया अवश्य चलनी चाहिए क्योकि विज्ञानं की ही तरह इतिहास भी एक सतत खोज है..। इन सभी उद्धरणों से हम और आप, उन सभी बुद्धिजीवियों की मानसिकता, नियत और उद्देश्य को आसानी से समझ सकते है, जिन्होंने ढूंढ-ढूंढ कर भारत के गौरव को नष्ट, भ्रष्ट और भ्रमित किया और अभी के लिए इतना ही.. लेकिन ऐसे क्षद्म बुद्धिजीवियों के मंतव्यों और उपायों के साथ-साथ भारत के गौरवशाली इतिहास पर चर्चा आगे भी जारी रहेगी..।

1 comment on “भारतीय समाज को बाँटने हेतु इतिहास के कुछ बड़े झूठAdd yours →

  1. यदि आप बचपन से सिकंदर की कहानी और पुरुस की कहानी पढेंगे और उनके सारे एतिहासिक लेख पढोगे तो आपको साफ़ साफ पता चल जायेगा की इस झेलम के युद्ध में सिकंदर की बहुत बुरी हार हुई थी, वरना जो सिकंदर बचपन से भारत पर राज करना चाहता था आगे बढ़ने की बजाये वापस क्यों लौट गया, और दूसरी बात जिस से सिकंदर का युद्ध होता था सिकंदर उसको जिंदा नहीं छोड़ता था और पोरस तो उसका बहुत ही बड़ा दुश्मन था जिसने सिकंदर को धूल चटा दी और उसके बहुत सैनिको को मारा फिर सिकंदर पोरस को भला कैसे जिंदा छोड़ सकता है इस बात से साफ़ पता चलता है की सिकंदर हार गया था लेकिन सिकंदर के जो चेले छपते इतिहासकार थे उन्होंने सिकंदर को महान बनाने के लिए उसकी इस हार को इतिहास में जीत लिख दिया क्योंकि वे वही करते थे जो सिकंदर कहता था और हमने भी वही मान लिया जो गलत है

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