मोहम्मद अली जिन्ना - धार्मिक राजनीतिकरण की एक कड़ी

मोहम्मद अली जिन्ना – धार्मिक राजनीतिकरण की एक कड़ी

मोहम्मद अली जिन्ना – एक ऐसा नाम, जो ना केवल ब्रिटिश भारत के बंटवारे का कारण बना, बल्कि इंसानियत, मानवता, प्रेम और संस्कृति के भी आधुनिक बंटवारे का कारण बनकर उभरा। भारत कई सदियों से क्षेत्रीय संघर्ष में उलझा रहा.. जो जितना ताकतवर बनकर उभरा, उसने अपने साम्राज्य का उतना अधिक विस्तार किया.. लेकिन धार्मिक आधार पर क्षेत्रीय बंटवारे की आवाज़ भारत ने पहली बार सुनी थी। इस मिटटी को, जिसे हम मां कहते है, कई बार कई टुकड़ों में बंटती रही.. और लोगों ने ताकत और अहंकार की दीवारें भी खड़ी की.. लेकिन ताकत और अहंकार कब स्थायी रहे है..? परिवार बांटने की कोशिशें जरूर चलती रही.. सारा संघर्ष ऊपर के लोगों तक सीमित रहा.. परिवार कभी नहीं बंटा.. लेकिन इस बार जो दीवार खड़ी करने की कोशिश की गयी, वो थी विश्वाश की दीवार.. धर्म की दीवार.. जो एक बड़ी आबादी के लिए सीधा-सीधा औचित्य रखती थी। इस दीवार ने ना सिर्फ देश को बांटा.. बल्कि लोगों के मन में भी एक सरहद खींचने का प्रयास किया.. देश ही नहीं बंटा, कुछ लोग भी बंट गए.. तार के बाड़ तो सरहदों पर बाद में लगे लेकिन मन में खाइयां तो पहले ही खोद दी गयी थी..।

अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर को लेकर जब हाल-फिलहाल विवाद छिड़ा तो कई तरह के मत सामने आये। किसी ने कहा दिवराष्ट्र का सिद्धांत जिन्ना ने दिया तो किसी ने कहा वीर सावरकर ने.. किसी ने किसी का नाम लिया तो किसी ने किसी का.. किसी ने इतिहास की दुहाई देकर अपने अहम् को सँभालने का प्रयास किया तो किसी ने राजनीति की दुहाई देकर.. और जिसका जो मत था उसी अर्ध-सत्य के आधार पर अपने-अपने उद्देश्य को आगे बढ़ाता रहा। हमने इन्ही मतों को समझने के लिए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करने का प्रयास किया.. जो पहले से ही हमारे और आपके मध्य उपलब्ध है।

१८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक तरफ जहाँ अमर शहीद कोतवाल धनसिंह गुर्जर ने 10 मई, 1857 के दिन मेरठ में मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हुए क्रान्तिकारियों को नेतृत्व प्रदान किया वहीँ इस क्रांति दल के दिल्ली पहुंचने पर 11 मई, 1857 को बहादुर शाह ज़फ़र ने नेतृत्व प्रदान किया। बहादुर शाह ने कई वर्षों बाद अपना पहला अधिकारिक दरबार लगाया जिसमें बहुत से सिपाही सम्मिलित हुए और इन घटनाओं से चिन्तित होने के बावजूद अन्तत: उन्होने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी। अंग्रेज शाशन के प्रति ये पहला विद्रोह नहीं था.. यदि हम देखें तो दक्षिण भारत के वेल्लोर की क्रांति ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़ भारतीय सिपाही आंदोलन का सबसे पहला उदाहरण है। वेल्लोर क्रांति का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा 1805 में भारतीय सैनिकों की वर्दी में किया गया परिवर्तन था। सरकार ने हिन्दू सैनिकों को अपने मस्तक पर धार्मिक चिन्ह (टीका) लगाने की अनुमति नहीं दी और मुस्लमानों को दाढ़ी व मूँछ हटाने के लिये बाध्य किया जिसके कारण मई 1806 में कुछ आंदोलित सैनिकों को दंडित भी किया गया। अन्ततोगत्वा 1799 से बंदी बनाये गये टीपू सुल्तान के बेटों को मुक्त करवाने के लिये 10 जुलाई 1806 कीे आधी रात को सिपाहियों ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और अधिकांंश ब्रिटिश लोगों को मार डाला। इस घटना में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों ने टीपू सुल्तान के दूसरे पुत्र फ़तेह हैदर को राजा घोषित कर दिया। अगले दिन ब्रिटिश सेना व क्रांतिकारियों के बीच भयानक लड़ाई हुई जिसमें लगभग 350 आंदोलनकारी मारे गये व दूसरे 350 घायल हो गये। ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह की इस घटना से सबक सीखकर भारतीय सिपाहियों के सामाजिक व धार्मिक रिवाजों पर लगाए गए निरोधात्मक नियम बंद कर दिए।

1857 की क्रांति में बहादुर शाह ज़फ़र दिल्ली के तखत पर बिठा दिये गये थे और अवध निवासी भी नवाब की रियासत को बनाये रखना चाहते थे। मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ खैराबादी और अहमदुल्लाह शाह जैसे मुस्लिम नेताओं द्वारा जिहाद का आह्वान किया गया। इसका विशेषरुप से मुसलिम कारीगरों द्वारा समर्थन किया गया। इस के कारण अधिकारीयों को लगा कि विद्रोह के मुखिया मुसलिमों के बीच हैं। अवध में सुन्नी मुसलिमों ने इस जिहाद का अधिक समर्थन नहीं किया क्योंकि वो इसे मुख्य रूप से शिया आन्दोलन के रूप में देखते थे। कुछ मुस्लिम नेता जैसे आगा खान ने इस विद्रोह का विरोध किया जिसके लिये ब्रितानी सरकार ने उनका सम्मान भी किया। मुजफ़्फ़र नगर जिले के पास स्थित थाना नगर में सुन्नियों ने हाजी इमादुल्लाह को अपना अमीर घोषित कर दिया। मई 1857 में हाजी इमादुल्लाह की सेना और ब्रितानी सैनिकों के बीच शामली की लड़ाई हुयी।

इस प्रकार देखा जाये तो स्वतंत्रता या सत्ता के लिए १८५७ तक हिन्दू या मुस्लिम में कम से कम राजनीतिक मतभेद नहीं थे। 1857 के विद्रोह के बाद संचार के साधन, जैसे रेलवे और छापे-खाने, बढ़े। इससे राष्ट्रीयता की भावना तो बढ़ी ही लेकिन इसके साथ ही धार्मिक और जातीय अधार पर बड़े-बड़े संघ भी बन गए। इस दौर से पहले कभी ये ख़याल नहीं आता था कि हम पूरे देश के रूप में हिंदू हैं या मुसलमान.. और हमारी इतनी संख्या है। कहने का अर्थ ऐसा कदाचित नहीं है कि इससे पहले जात-पात या धर्म नहीं था, खूब था, लेकिन जाति या संप्रदाय के आधार पर संगठन नहीं थे। आधुनिकीकरण के साथ राष्ट्रीयकरण तो बढ़ा पर संप्रदायों का राजनीतिकरण भी हुआ। 1857 में हिंदुस्तान का ख़याल था.. धर्म का प्रभाव भी था और मतातंर भी था लेकिन ऐसे विचार नहीं थे कि हिंदू एक तरफ़ हैं और मुसलमान दूसरी तरफ़..। दोनों संप्रदायों के रीति-रिवाज के अंतर तो थे लेकिन इस बात पर सहमति थी कि हिंदू और मुसलमान साथ रहते हैं और रहना है..। उस समय उर्दू के अख़बार में विद्रोहियों को हिंदुस्तान का सिपाही या हमारी सेना से संबोधित किया गया और देश में हिंदुस्तान की भावना विकसित हो रही थी। बाद के लेखों में ये बात भी देखी जाने लगी कि कहाँ हिंदू विद्रोही ज़्यादा थे और कहाँ मुस्लिम विद्रोही.. लेकिन यदि उस काल-खंड में देखा जाये तो 1857 की क्रांति एक समग्र क्रांति थी।

1857 की क्रांति के बाद भारतीय इतिहास में बहुत कुछ बदल रहा था और जो सबसे महत्वपूर्ण बदलाव था, धार्मिक राजनीति से जन-जन को जोड़ने का प्रयास..। हालांकि शाशन के ऊपरी स्तर पर धार्मिक भेदभाव पहले भी था, जैसे जजिया कर इत्यादि.. लेकिन आम जन-मानस उससे इतने व्यापक स्तर पर इसलिए नहीं जुड़ पा रही था क्योकि सत्ता बाहुबल पर केंद्रित थी और जो संघर्ष था वो भी ऊपरी स्तर पर केंद्रित था। वहाबी आंदोलन 1828 ई. से प्रारम्भ होकर 1888 ई. चलता रहा जो कहने को तो धार्मिक आंदोनल था, लेकिन इस आंदोलन ने राजनीतिक स्वरुप ग्रहण कर लिया था। 1857 के बाद राजनीतिक, सामाजिक और शिक्षा के क्षेत्र में कई परिवर्तन आये। चूँकि बात अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शुरू हुयी थी इसलिए सर सैयद अहमद ख़ान की बात करना महत्वपूर्ण है जो कि इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के चाहने वाले थे। सर सय्यद अहमद खान ईस्ट इण्डिया कम्पनी में काम करते हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार बने रहे और उन्होने बहुत से ग़ैर फ़ौजी अंग्रेज़ों की जान भी बचायी लेकिन उन्होंने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत को हराने के लिए शैक्षिक मैदान को चुना। उन्होने उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। 1867 में बनारस (वाराणसी) स्थानांतरित होने पर उन्होंने पाया कि उर्दू के स्थान पर हिन्दी को लाने का आंदोलन शुरू हो गया है जिससे कही ना कही उनमें एक धारणा उत्पन्न हुयी कि हिन्दुओं और मुसलमानों के रास्तों को अलग होना ही है। मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में ‘मदरसतुलउलूम’ एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया, जो 1876 में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएण्टल कालेज और अंततः 1920 में विकसित होकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। उनके प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने का काम किया। उनके अन्दर ये डर समाने लगा था कि प्रजातंत्र की स्थापना के बाद भारत देश दो दलों- हिन्दू और मुसलमान में बँट जायेगा, जिससे अल्पसंख्यक मुसलमान कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे। इसलिए उनका झुकाव अंग्रेजी राज और उनके द्वारा मनोनीत प्रशासकों के प्रति हो गया। जब कांग्रेस की स्थापना हुई तो वे इसके कट्टर विरोधी के रूप में प्रकट हुए। उनका कहना था कि कांग्रेस केवल हिन्दुओं के लिए है और मुसलमानों को इससे दूरी बना कर रहना चाहिए। उनके द्वारा 1888 ई. में यह बयान दिया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौम (देश) हैं जिनके स्वार्थ अलग-अलग हैं। सैयद अहमद जैसे इंसान का यह बयान आग की तरह फ़ैल गया और हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्रत्यक्ष रूप से दिवार दिखने लगा। वैसे एम. सयानी, बदरुद्दीन तैयब जी जैसे लोग अहमद खाँ के विरोध के बावजूद कांग्रेस से जुड़े।

नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एवं नूर नबी अब्बासी द्वारा उर्दू से हिंदी में अनुवादित किताब ‘खिलाफत आंदोलन’ में काजी मुहम्मद अदील अब्बासी ने लिखा है “सर सैयद भारत कि राजनीति पर उस समय उभरकर आये जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम कि असफलता के बाद मुस्लमान बुरी तरह कुचला गया था। क़त्ल, फांसी और जायदादों कि जब्ती का एक लम्बा सिलसिला था जो काफी समय तक जारी रहा था और स्थिति पर पूर्ण नियंत्रण होने के बाद ही अंग्रेज शासन ने छोटी नौकरियों से मुसलमानों को पूरी तरह से निकल दिया था, बड़ी नौकरियां तो हिन्दुस्तानियों को मिलती ही न थी। सर सैयद इन परिस्थितियों से बहुत अधिक प्रभावित थे और इसका उन्होंने कुछ समय बाद यह हल सोचा कि :

  1. मुसलमानों की गरीबी को दूर किया जाये ।
  2. देश की आज़ादी को जहाँ तक संभव हो टाला जाये और मुसलमानो की गरीबी को दूर करने और सम्मानपूर्ण जीवन बिताने के अवसर प्राप्त करने के लिए सरकार की पूरी वफ़ादारी का तमगा हासिल किया जाये क्योकि अगर देश आज़ाद हुआ और तीन-चौथाई हिन्दू और एक-चौथाई मुसलमान होंगे तो पीस दिए जायेंगे।”

पायनियर में प्रकाशित, २८ दिसंबर १९८७ को उनके द्वारा दिए गए भाषण का जिक्र करते हुए काजी मुहम्मद अदील अब्बासी लिखते है कि “भाषण में उनहोंने इस बात पर बल दिया था कि मुसलमानों को कांग्रेस में हरगिज शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि अगर हिंदुस्तान में प्रतिनिधि सरकार बनी तो उनका भविष्य अंधकारमय होगा और उन्हें तबाही-बर्बादी के सिवा कुछ ना मिलेगा और मुसलमानों को स्थायी दासता के अतिरिक्त कोई लाभ ना होगा। सर सैयद ने इसके तीन कारण बताये थे :

  1. हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि अंग्रेज अपनी फौजें वगैरा लेकर चले जाएँ तो कौन यहाँ शासन करेगा ? जाहिर है कि राजसिंहासन पर हिन्दू और मुसलमान दोनों नहीं बैठ सकते, कोई एक दुसरे पर हावी हो जायेगा । यह आशा करना कि दोनों के सामान अधिकार होंगे, व्यर्थ है और असंभव को संभव बनाने कि इच्छा के सामान है।
  2. प्रतिनिधि सरकार हिंदुस्तान के लिए उचित नहीं है, इसलिए कि अगर वोट लिए गए तो मुसलमान मुसलामानों को और हिन्दू हिन्दुओं को वोट देंगे। ऐसी स्थिति में तीन-चौथाई और एक-चौथाई का अनुपात होगा।
  3. मुसलमानों के अंग्रेज सरकार पर पूरा भरोसा करना चाहिए वही उनके अधिकारों की रक्षा कर सकती है और उन्हें कार्यपालिका में प्रभावशाली प्रतिनिधित्व प्रदान कर सकती है।”

ऊपर की बातों को एक बार पढ़ने के बाद ये आसानी से समझा जा सकता है कि 1906 में ढाका में स्थापित अखिल भारतीय मुस्लिम लीग (ऑल इंडिया मुस्लिम लीग) को वैचारिक आधार कई वर्ष पहले दिया जा चुका था जिसे तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिन्टो के शह पर १९०६ में अमलीजामा पहनाया गया। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग उस समय भारतीय इस्लाम का प्रमुख राष्ट्रीय केंद्र और एक राजनीतिक पार्टी थी। जब हम मोहम्मद अली जिन्ना कि बात करते है तो 1896 में ही वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये थे लेकिन शुरूआती झिझक के बाद 1913 में मुस्लिम लीग में शामिल हो गये। भारतीय राजनीति में उनका उदय प्रमुखरूप से 1916 में हुआ, जब शुरुआत में उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौता करवाया। वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने 1920 में कांग्रेस से पुनः इस्तीफा दे दिया और निजी कारणों से कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से दूर भी रहे लेकिन मुस्लिम लीग के नेताओं – आगा खान, चौधरी रहमत अली और मोहम्मद अल्लामा इकबाल के बार-बार आग्रह पर 1934 में जिन्ना लन्दन से भारत लौट आये और मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया। जैसा कि हम जानते हैं कि इसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर आगे चलकर भारत और पाकिस्तान का १९४७ में गठन हुआ।

हिंदुस्तान के बंटवारे को लेकर बीच में कई ऐसी घटनाएं और व्यक्ति सम्मिलित रहे जिनका जिक्र एक जगह संभव नहीं है लेकिन समझने कि बात यह है कि १८५७ की क्रांति तक जहाँ हिन्दू और मुस्लिम भारत की स्वतंत्रता के लिए संयुक्तरूप से प्रयासरत थे, तो बीच में ऐसी कौन सी विचारधारा आ गयी जिसने दोनों को अलग करने का प्रयास किया। हिंदुस्तान के बंटवारे के लिए जितने उत्तरदायी मोहम्मद अली जिन्ना थे उससे कहीं ज्यादा उत्तरदायी वो विचारधारा है जिसने राजनीतिक आधार पर बांटने के लिए धर्म को अपना हथियार बनाया और इसका सूत्रपात जिन्ना से कहीं पहले हो चुका था। धर्म के प्रणेताओं ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि जिस धारा का उदय व्यक्तिगत जागरण और सामाजिक उत्थान के लिए हुआ, वही धारा व्यक्ति, समाज और देश को बांटने का कारण बन जाएगी.. गंगोत्री में गंगा की पवित्रता गंगासागर तक पहुंचते-पहुँचते दूषित हो जाएगी। हालांकि १९वी शताब्दी में शुरू हुए इस वैचारिक आंदोलन से २०वीं शताब्दी तक दूसरी विचारधाराएं भी जुड़ चुकी थी जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के लिए तार्किक आधार गढ़े क्योंकि उनकी विचारधारा में राष्ट्रवाद का कोई सिद्धांत नहीं था। लेकिन सोचने कि बात यह है कि क्या अंग्रेज सर सैयद अहमद खान, आगा खान या मुहम्मद अली जिन्ना आदि के सच्चे शुभचिंतक थे..? क्या ये विचारधारा अपने अनुयायियों की सच्ची शुभचिंतक है.. या फिर क्या पाकिस्तान ही अपने लोगों का सच्चा शुभचिंतक बन पाया..? ये सारे अपने आप में एक अलग विषय हैं तो इन पर चर्चा कभी बाद में करेंगे लेकिन जब आज भी इसी तरह की विचारधारा कश्मीर जैसे देश के कई भागों में कट्टरता फैला रही हो तो हमें अपने इतिहास से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। हालांकि पाकिस्तान के जाने-माने स्तंभकार और विचारक हसन निसार साहब के विचारों से सहमत होते हुए, कई शब्दों से हम भी असहमत हैं लेकिन इससे इतिहास के धार्मिक राजनीतिकरण के विषय में बहुत कुछ समझने को मिलता है इसलिए उनका एक वीडियो शेयर कर रहे हैं..

सीधा सा नियम है कि जो विचारधारा परिवार को बांटे, वो परिवार के लिए उचित नहीं.. जो समाज को बांटे वो समाज के लिए उचित नहीं.. और जो देश को बांटे वो देश के लिए उचित नहीं है। मतभेद हर एक के बीच संभव है लेकिन जब मतभेद की आक्रामकता मनभेद का रूप ले लेती है तो वह देश और समाज दोनों के लिए घातक है और सोचने की बात ये है कि जब इन्ही मन-भेदों को शिक्षा में सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह समाज के लिए एक धीमा जहर बन जाती है। यदि गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि मोहम्मद अली जिन्ना जैसे बहुत से लोग तो कठपुतली मात्र हैं, हमें जरूरत है उस विचारधारा के प्रति सजग होने की और हल ढूंढने की.. जो विश्व के कई हिस्सों की भांति, भारत के कश्मीर जैसे भूभागों में आज भी अलगाववाद एवं आईएसआईएस जैसे अतिवादी और अमानवीय संगठनों को खाद और पानी दे रही है। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर को लेकर पैदा हुआ विवाद, इसी ओर इशारा करता है कि निःसंदेह हम जिन्ना को अपने इतिहास का हिस्सा बनाकर रखें लेकिन एक नायक की तरह नहीं.. बल्कि उस व्यक्ति की तरह.. जिसकी वैचारिक विक्षिप्तता या फिर स्वार्थ, देश के लाखों व्यक्तियों की हत्या का कारण बनी। प्रत्येक व्यक्ति की तस्वीर के साथ उसके योगदान और विचारों को भी वहीँ लिखना चाहिए जिससे कोई भी तस्वीर और उसे लगाने वालों के प्रति अपनी राय गढ़ने से पहले दोनों के विषय में लोग समझ सके। कोई भी सामान्य व्यक्ति केवल तस्वीर देखकर ये ज्ञात नहीं कर सकता कि लगाने वाले के लिए उस तस्वीर का महत्त्व क्या है..। तस्वीरें उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती, जितनी व्यक्तियों की शिक्षाएं और विचार.. अब जायज और नाजायज़ के विषय में सोचना हमको और आपको है.. लेकिन स्वयं के विवेक का भी उपयोग करके..।

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