Shabari Mata The Greatest Devotee of Lord Shri Ram

रामायण: क्रौंच-वध से शम्बूक-वध के आधुनिक प्रयासों तक

हमारी मान्यताएं ही हमारे चरित्र का आधार है, चाहे वो नैतिक हो अथवा धार्मिक.. लेकिन जो मान्यताओं तक ही बंध कर रह जाता है, उसकी स्थिति ठीक वैसे ही होती है जैसे किसी के पूर्वज घर के पास गंगा-जल को एक बड़े से तालाब में एकत्रित कर लें.. और उनकी आने वाली पीढ़ियां उसी तालाब को गंगा समझकर स्नान करते रहे। “जीवन सतत गतिमान है और जहां ठहराव है.. वही मृत्यु है..”। जिस दिन गंगा को किसी तालाब में नियंत्रित कर दिया जाता है.. गंगा उसी क्षण उससे विलुप्त हो जाती है। किसी बोतल में रखी हुयी गंगा, मात्र इस बात का सूचक है कि गंगा है.. परन्तु गंगा को जानना है तो दरवाजों से बाहर आना ही होगा। सिर्फ मान्यताओं से कुछ भी शुभ फलित होने वाला नहीं है.. मान्यताएं तो मात्र इशारा है.. और शुभत्व उनके जानने में है..! हर बच्चे कि जरूरत है कि उसकी बाल्यावस्था में माता-पिता द्वारा एक आश्रय प्रदान किया जाये.. लेकिन यदि उसी मकान में उसने सारी जिंदगी व्यतीत कर दी.. तो उसके जीवन की उपलब्धि क्या है..? अतीत से हमें मकान मिल सकता है, लेकिन उसे जीवंत करने का दायित्व हमारा स्वयं का है.. किसी और के लिए नहीं, बल्कि कम से कम स्वयं के लिए.. अन्यथा मकानों के खंडहर बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। हमारी मान्यताएं मात्र इशारा है, उस चाँद की ओर.. लेकिन जब हम इशारा करने वाली ऊँगली को ही पकड़ के बैठ जाते है.. तो सत्य दूर रह जाता है..!

सत्य पर विचार कभी बाद में करेंगे.. लेकिन मान्यताओं पर विचार तो अभी कर सकते है.. क्योकि वो सुलभ है..। मान्यताएं भी मुख्यतः दो तरह की ही होती है, एक सहमति की.. दूसरी असहमति की..। नाम हम कुछ भी दे दे.. क्योकि मान्यताएं सिर्फ उसी के लिए गौड़ हो सकती है, जिसने सत्य को जान लिया है.. अन्यथा लोग इन्ही दो धाराओं में बहते रहते है। कोई नास्तिक, किसी आस्तिक की मान्यता से भले ही सहमत ना हो, लेकिन इसका अर्थ ये कदाचित नहीं है कि उसकी स्वयं की कोई मान्यता नहीं है.. उसकी भी अपनी मान्यता है, असहमति की..। ये दोनों ही पटरिया किसी रेलवे लाइन की तरह सदैव समानांतर चलती रहती है.. और प्रत्येक व्यक्ति इस भ्रम में रहता है कि वो सिर्फ अपनी मान्यताओं की एक अकेली पटरी पर चल रहा है.. बिल्कुल उस चालाक की तरह जिसकी निगाह दूर भविष्य में उस स्थान पर टिकी है जहाँ उसको दोनों पटरियां, एक अकेली, अपनी ही नजर आ रही है.. और भविष्य की लालसा में उसकी निगाहें अपने ठीक नीचे, अभी में देखने को तैयार नहीं है..। यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन भर आस्तिक होते हुए भी अंत में नास्तिक हो जाते है या फिर नास्तिक रहते हुए जीवन के एक पड़ाव पर आकर आस्तिक हो जाते है। इसका यह अर्थ कदाचित नहीं है, कि उन्हें सत्य का पता चल गया है.. ये तो एक खोज है.. चलती रहेगी तो संभावनाएं खुली रहेंगी..। लेकिन ये तो है, दोनों प्रकार की मान्यताओं का शुद्ध रूप.. इनके अशुद्ध रूप भी इसी समाज में ही उपलब्ध है। असहमति की मान्यता कभी-कभी इतनी नकारात्मक हो जाती है कि वो दूसरों के मकान की खिड़की को सुराख बताकर, स्वयं के आश्रय-विहीन होने को सार्थक सिद्ध करने में लग जाती है। खुले आसमान को अपना आसियाना बताना, उनके लिए स्वयं की सार्थकता को सिद्ध करने का शायद बेहतर उपाय होता लेकिन उनका समस्त दर्शन ईर्ष्या, द्वेष और नकारात्मकता की ओर उन्मुख हो जाता है क्योकि उनका स्वयं का कोई आधार नहीं होता.. अपनी कोई खोज नहीं होती.. और जिसके पास अपनी कोई उपलब्धि नहीं होती है, उसके लिए सबसे आसान एवं निकृष्ट तरीका होता है.. दूसरों में कमियां निकलना..। निकृष्ट मैंने इसलिए कहा क्योकि आलोचना यदि सकारात्मक है तो वो दूसरों की कमियों और दोषों को दूर करने के लिए होती है.. लेकिन निकृष्ट तब हो जाती है जब उस आलोचना का उद्देश्य, दुसरे पर मात्र दोषारोपण करके, स्वयं को महान दिखने की कोशिश होती है। इसी प्रकार के कुत्सित आलोचनाओं का सिलसिला भारत में भी एक लम्बे समय से चला आ रहा है और बाद में यहाँ के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने आगे बढ़ाया। उनके पास अपना ऐसा कुछ भी नहीं था जिसकी सार्थकता को वो समय की कसौटी पर खरा दिखा सके.. तो उन्होंने अपने जीवन-यापन के लिए सबसे आसान तरीका अपनाया.. दूसरों की फसल से अपना दाना-पानी चुनने का.. जिसे हम प्रायः परजीवी के नाम से जानते है..। भारत के आदि महाकाव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ को लेकर इसी प्रकार के लोगों द्वारा दुष्प्रचार का एक अभियान चलाया गया.. और कई प्रकार के प्रश्न उठाये गए.. जैसे कि..

  • क्या रामायण और महाभारत इतिहास नहीं, बल्कि काल्पनिक रचना है..
  • क्या रामचंद्र जी भगवान नहीं, मात्र एक राजा थे..
  • क्या रामचंद्र जी ने शंबूक का वध किया था..
  • क्या उन्होने गर्भवती सीता को छोड़ दिया था..
  • क्या रामचंद्र जी ने आत्महत्या कर ली थी.. आदि..

एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि ये ‘क्या’ हमने अपनी तरफ से लगाया है.. उन्हें इन बातों में कोई संशय नहीं है और ये उन लोगों के लिए सिद्ध वाक्य है। जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन-काल में रामायण का एक पृष्ठ भी नहीं पढ़ा होगा.. वो भी इन बातों पर बड़े-बड़े भाषण और लेख लिखते है.. जिनको ये नहीं पता कि वास्तव में रामायण के कितने प्रारूप हैं और कितनी भाषाओँ में लिखी गयी है वो भी बिना एक को भी देखे.. इन प्रसंगों को ऐसे उद्धृत करते है जैसे समस्त ज्ञान उनके दिव्य चक्षुओं से होकर बह रहा हो.. और अंतिम निष्कर्ष के लिए उनसे उपयुक्त कोई भी नहीं है। कहने का अर्थ यही है कि उनका उद्देश्य समालोचना का नहीं है बल्कि स्वार्थसिद्धि है। काल्पनिकता के विषय में एक अहम् बात साइंस चैनल ने अपने हाल ही के शोध में बताया.. जब उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक विश्लेषण कहता है कि भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले पौराणिक रामसेतु (Adam’s Bridge) का अस्तित्व है.. परन्तु यदि गौर से देखा जाये तो उनके सारे प्रश्न स्वयं ही एक दुसरे के विरोध में खड़े है। यदि रामायण काल्पनिक है तो रामचंद्र जी के भगवान या मनुष्य होने का प्रश्न कहाँ से आया.. और यदि रामचंद्र जी भगवान नहीं थे बल्कि एक राजा मात्र थे तो रामायण के काल्पनिक होने का प्रश्न कहाँ से आया..? यदि रामचंद्र जी एक साधारण मनुष्य थे तो उनके द्वारा शम्बूक वध और सीता जी के निर्वासन पर इतनी हाय-तौबा क्यों.. क्योंकि इतिहास तो ऐसे प्रसंगों से भरा पड़ा है और यदि वो भगवान हैं तो उनके प्रयोजन और विवेक को स्वयं से कमतर समझने का क्या औचित्य..? आज जबकि लोग २ वर्ष की फसल ख़राब होने पर आत्म-हत्या कर लेते हों तो यदि रामचंद्र जी एक राजा मात्र थे और सहस्त्रों वर्षों के शासन और कार्यभार के निर्वाहन के बाद आत्म-हत्या कर भी लें तो इतना आश्चर्य क्यों.. और यदि वो अवतार हैं तो उनकी जल समाधि को आत्म-हत्या या महानिर्वाण निर्धारित करने वाले हम कौन..? वास्तव में ऐसे लोगों का रामचंद्र जी से कोई लेना देना ही नहीं है.. उनका निशाना है.. हिन्दू, हिंदुत्व और उसकी पौराणिकता..! और इस बात का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते है कि जब उन्हें शम्बूक वध का दुष्प्रचार करना होता है तब तो ‘वाल्मीकि रामायण’ से उद्धरण लेते है क्योकि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ में ना तो उत्तरकाण्ड का उल्लेख है और ना ही शम्भूक वध का.. और जब गोस्वामी तुलसीदास के विषय में दुष्प्रचार करना होता है तो ‘ढोल गंवार..’ जैसे दोहे का..! अब सोचने की बात ये है कि यदि उनका प्रयोजन एक सम्यक आलोचना का है और वो ‘श्रीरामचरितमानस’ की प्रमाणिकता के आधार पर आगे बढ़ते है तो वाल्मीकि रामायण का ‘उत्तरकाण्ड’ प्रमाणिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.. और यदि वाल्मीकि रामायण को प्रामाणिक मानते है तो सोचने की बात है कि जब गोस्वामी तुलसीदास ने औचित्यनुरूप शम्भुक-वध को मानस से हटा दिया, फिर वो ‘ढोल गंवार..’ जैसे दोहे को अपने मानस में कैसे सम्मिलित कर सकते हैं..? इन विरोधाभासों में कुछ न कुछ भेद तो अवश्य छुपा है परन्तु उन बातों को उचित तरह से समझने से पहले हम रामायण कि सार्थकता, ऐतिहासिकता और व्यापकता का अवलोकन कर लेते है।

वाल्मीकि रामायण २४,००० श्लोकों का आदि कवि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखा गया एक अनुपम महाकाव्य है जो कि हिन्दू स्मृति का अंग हैं। इसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी, जिनका समय त्रेतायुग का माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और वाल्मीकि कृत ‘रामायण’, भगवान राम को समर्पित दो मुख्य ग्रंथ हैं। इसके अलावा तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीरी में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आज के भारत में उपलब्ध हैं। इसके बाद जब हम आधुनिक भारत की सीमाओं के बाहर देखते हैं तो कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई, मलेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण के साथ-साथ कई अन्य देशों में वहां की भाषा में रामायण लिखी गई हैं। इस प्रकार दुनियाभर में 300 से ज्यादा रामायण प्रचलित हैं जिनमें वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण, रामचरित मानस, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण और आनंद रामायण की ज्यादा चर्चा होती है। नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में तथा दुनियाभर में बिखरे शिलालेख, भित्तिचित्र, सिक्के, रामसेतु, अन्य पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन भाषाओं के ग्रंथ आदि से राम के होने की पुष्टि होती है और पता चलता है कि रामकथा और राम का प्रभाव एक समय संपूर्ण धरती पर था। कुमार दास (512-21ई.) जो कि लंका के राजा थे, ने भारतीय महाकाव्यों की परंपरा पर आधारित ‘जानकी हरण’ की रचना की। जबकि इससे पहले 700 ईसापूर्व में ‘मलेराज की कथा’ श्रीलंका के सिंहली भाषा में जन-जन में प्रचलित रही, जो राम के जीवन से जुड़ी है। बर्मा, जिसे पहले ब्रह्मादेश कहा जाता था, उसकी रामकथा पर आधारित प्राचीनतम गद्यकृति ‘रामवत्थु’ है। संपूर्ण इंडोनेशिया और मलयेशिया में पहले हिन्दू धर्म के लोग रहते थे, लेकिन फिलिपींस के इस्लामीकरण के बाद वहां भी हिन्दुओं का जब कत्लेआम किया गया और फिर सभी ने मिलकर इस्लाम ग्रहण कर लिया तो फिलिपींस की तरह वहां भी रामकथा को तोड़-मरोड़कर एक काल्पनिक कथा का रूप दिया गया। डॉ. जॉन आर. फ्रुकैसिस्को ने फिलिपींस की मारनव भाषा में संकलित एक विकृत रामकथा की खोज की है जिसका नाम ‘मसलादिया लाबन’ है। रामकथा पर आधारित इंडोनेशिया के जावा की प्राचीनतम कृति ‘रामायण काकावीन’ है जिसकी रचना कावी भाषा में हुई है जो कि जावा की प्राचीन शास्त्रीय भाषा है। मलयेशिया का इस्लामीकरण 13वीं शताब्दी के आस-पास हुआ और मलय रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि बोडलियन पुस्तकालय में 1633 ई. में जमा की गई थी। इस पर आधरित एक विस्तृत रचना है ‘हिकायत सेरीराम’.. जिसका आरंभ रावण की जन्म कथा से हुआ है क्योंकि मलेशिया पर मूलत: रावण के नाना का आधिपत्य था। चीनी रामायण को ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’ के नाम से जाना जाता है जिसके हर पात्र के नाम और रामकथा के मायने भी अलग हैं। इसके अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे और उनके पहले पुत्र का नाम लोमो था, जिनका जन्म 7,323 ईसा पूर्व हुआ था। इसकी कथा पूर्णत: वाल्मीकि रामायण पर आधारित है, हालांकि इसकी कथा नायिका विहीन है। जब हम चीन में प्रचलित ‘अनामकं जातकम्’ के रचनात्मक स्वरूप को देखते है तो राम वन गमन, सुग्रीव मैत्री, सेतुबंधष लंका विजय आदि प्रमुख घटनाओं से इसके रामायण पर आधारित होने का पता चलता है। चूँकि ये दोनों रचनाएँ बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में मिलती है इसलिए आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों नायिका विहीन ‘अनामकं जातकम्’ में जानकी हरण, बालि वध, लंका दहन, सेतुबंध, रावण वध आदि प्रमुख घटनाओं का वर्णन नहीं मिलता है। हालांकि ‘दशरथ कथानम्’ के अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे। राजा की प्रधान रानी के पुत्र का नाम लोमो (राम)। दूसरी रानी के पुत्र का नाम लो-मन (लक्ष्मण) था। राजकुमार लोमो में ना-लो-येन (नारायण) का बल और पराक्रम था। उनमें ‘सेन’ और ‘रा’ नामक अलौकिक शक्ति थी तीसरी रानी के पुत्र का नाम पो-लो-रो (भरत) और चौथी रानी के पुत्र का नाम शत्रुघ्न था। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह ‘होबुत्सुशू’ में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएं मिली हैं। मंगोलिया में रामकथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियां भी उपलब्ध हुई हैं। दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार रामकथाओं की खोज की है। इनमें ‘राजा जीवक की कथा’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है। तिब्बत, जहाँ के लोग प्राचीनकाल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे, में रामकथा को किंरस-पुंस-पा कहा जाता है। तिब्बती रामायण की 6 प्रतियां तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग, जिसे खोतान कहा जाता है, उसकी भाषा खोतानी है। पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से खोतानी रामायण को खोजकर एचडब्लू बेली दुनिया के सामने लाये। यह तो रही राम-कथा की सार्वभौमिकता और व्यापकता की बात.. लेकिन जब हम ऐतिहासिकता की बात करते है तो वाल्मीकि कृत रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है..। रामायण के अधिकांश पाश्चात्य शोधकर्ता सात कांडों में से, दूसरे से ले कर छटवे तक के कांडों (अर्थात् अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर एवं लंका या युद्ध), जिसे ‘आदिकाव्य’ कहा गया है, की रचना स्वयं वाल्मीकि के द्वारा और शेष दो कांड (अर्थात् पहला बालकांड, एवं सातवा उत्तरकांड) को प्रक्षिप्त मानते हैं। वाल्मीकि के ‘आदिकाव्य’ के रचनाकाल के संबंध में विभिन्न संशोधकों के अनुमान निम्नप्रकार है-

१. डॉ. याकोबी- ६ वी शताब्दी ई. पू.
२. डॉ. मॅक्डोनेल- ६ वी शताब्दी ई. पू.;
३. डॉ. मोनियर विल्यम्स- ५ वी शताब्दी ई. पू.;
४. श्री. चिं. वि. वैद्य- ५ वी शताब्दी ई. पू.;
५. डॉ. कीथ- ४ शताब्दी ई. पू.;
६. डॉ. विंटरनित्स- ३ री शताब्दी ई. पू.।

इसी प्रकार अकबर की सचित्र रामायण, जो ई.स. १५८४ से १५८८ के बीच तैयार हुए थीं, वर्तमान समय में महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय संग्रहालय, जयपुर में है। इस रामायण को मुगल रामायण के नाम से जाना जाता है। रामायण की इस प्रति मे ई.स. १६५४ की शाहजहां और ई.स. १६५८ तथा ई.स. १६६१ की औरंगजेब की मुहर लगी हुई हैं। इसी प्रकार कम्ब रामायण का रचना काल लगभग बारहवी शताब्दी, रंगनाथ रामायण का रचना काल लगभग १३८० इस्वी, तोरवे रामायण का रचना काल लगभग १५०० इस्वी और गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस की रचना १५७४ ईस्वी से १५७६ ईस्वी के मध्य है। इसी प्रकार १८ दिसम्बर २०१५ को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे समाचार के अनुसार कोलकाता के एशियाटिक सोसायटी लाइब्रेरी में संयोगवश वन्हि (अग्नि) पुराण पर खोज करते हुए, हिंदू महाकाव्य रामायण की 6वीं शताब्दी की पांडुलिपि मिली है जिसमें केवल पांच कांड (अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर एवं लंका या युद्ध) हैं।

यदि सारी बातों पर विचार किया जाये तो तार्किक और वैचारिक दोनों तरीकों से शम्बूक-वध जैसी घटना पर प्रश्नचिन्ह उठता है क्योंकि पूरी रामायण में राम के अत्युतम आदर्श चरित्र को वर्णित करने के उपरान्त अंत में ऐसा गर्हित चरित्र चित्रण महर्षि वाल्मीकि जैसे कवि नहीं कर सकते है। एक तरफ राम कथा में उत्तरकांड को प्रक्षिप्त मानकर कुछ अनुपस्थित कर देते हैं तो दूसरे लोग राम के चरित में उदात्तता लाने के लिए इस प्रसंग को जोड़ते हैं और इन्ही दोनों तरह के धर्म-संकट के बीच तीसरे लोग अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने में लग जाते है। सोचने की बात है कि जिन राम ने चौदह वर्ष दलित, शोषित, पीड़ित, आदिवासी, वनवासी के कल्याण के लिए उनके साथ विताये, केवट की वाणी पर ठहठहाकर हँसे, निषादराज को गले लगाए, शवरी के जूठे बेर खाये, गृद्ध जटायु को गोद में लेकर रोए, वानरों के साथ प्रेम से मुसुकराए.. क्या वे राम शंबूक का वध कर सकते हैं..? और इसी कारण अधिकतर रामायण में यह पूरी की पूरी कथा अनुपस्थित है। ये कथा या तो सभी युगों की सामाजिक स्थिति का दर्पण हो सकती है या फिर एक राजनीतिक षड्यंत्र.. क्योकि एक समय जब शंबूक का वध हुआ, फिर एक समय आया जब भवभूति के उत्तररामचरित में शंबूक के वध के लिए मुश्किल से हाथ उठा और रामकथा के अत्याधुनिक सनातन संस्करण श्रीरामचरितमानस में शंबूक वध कथा ही अनुपस्थित हो गई लेकिन भारतीय समाज को राजनीतिक दायरे में बांटने के लिए यह कथा आज और भी अधिक मिर्च-मसाले के साथ विद्यमान है। विचार करने की बात यह भी है कि अभी तक वाल्मीकि रामायण की जो सबसे पुरानी पाण्डुलिपि मिली है वो 6वीं शताब्दी की है और उसमें ना ही बाल-काण्ड उपस्थित है और ना ही उत्तर-काण्ड.. फिर क्या कुछ लोगों ने इन प्रसंगों को प्रक्षिप्त किया..? जो कथा सदियों-सदियों से जन-मानस का एक अहम् हिस्सा रही है.. उसका संकलन कही किसी दौर में किसी के साजिश का शिकार ना हुआ हो..? जब तमसा नदी के किनारे क्रौंच (सारस) पक्षी के वध से द्रवित होने पर महर्षि वाल्मीकि के मुख से स्वतः ही ऐसा श्लोक फूट पड़ा हो-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

तो क्या वो आदिकवि वाल्मीकि एक तपस्वी के वध को महिमामंडित कर सकते है..? क्रौंच वध की करुणा ने जिस वाणी को काव्य का रूप दे दिया हो, शंबूक-वध का प्रसंग क्या उस आदिकवि को अंदर तक तोड़ ना गया होता.. वो भी तब जब उनके बारे में वर्णित है कि वो स्वयं जन्म-जात ब्राह्मण नहीं थे? ऐतिहासिक और तार्किक रूप से तो हमने विश्लेषण करने की कोशिश की है.. भावनात्मक रूप से आप स्वयं विचार कीजियेगा..!

हो सकता है कि आपको शम्बूक-वध की कथा ज्ञात हो या ना हो.. लेकिन ये जरूर सोच रहे होंगे कि हमने इस बात का जिक्र इतनी बार किया लेकिन उस कथा का वर्णन अभी तक नहीं किया.. यदि आपको जानना है तो इंटरनेट पर आसानी से मिल जायेगा.. शम्बूक-वध की कथा अभी सामान्य भारतीय जनमानस तक उस तरह से नहीं पहुंची है, जैसा कि सीता निर्वासन की कथा.. सोचने की बात है कि भारतीय समाज में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले ‘श्रीरामचरितमानस’ में सीता निर्वासन का कोई वर्णन नहीं है, लेकिन ये कथा जन-विश्वाश का एक अहम् हिस्सा बन गयी है। उसी प्रकार शम्बूक-वध की कथा अभी कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रलाप का हिस्सा है जो धीरे-धीरे लक्षित लोगों के मष्तिस्क में उतारा जा रहा है, एक मनो-वैज्ञानिक तरीके से..! उदाहरण के लिए जब पानी गर्म हो और उसमे किसी मेढक को डाला जाये, तो वो उछलकर तुरंत बाहर आ जाता है.. क्योकि तापमान के अंतर और खतरे की स्थिति को समझ सकता है.. लेकिन जब सामान्य तापमान के पानी में मेंढक को डालकर, नीचे से धीरे धीरे गर्म किया जाता है.. तब मष्तिस्क आने वाले खतरे का आभास नहीं कर पाता.. और यही षड्यंत्र को प्रभावी बनाने का मनो-वैज्ञानिक तरीका है। हमारा अनुरोध है कि इसे उदाहरण ही समझा जाये ना कि उपमा.. जैसा कि अपने राजनीतिक स्वार्थ में लोग आजकल विषय बदलने की कोशिश करते रहते है। यह मात्र उदाहरण है उस धीमे जहर को समझने के लिए, जो धीरे-धीरे हमारे समाज में साजिशन उतारा जा रहा है। साजिशन इसलिए कह रहा हूँ क्योकि ऐसे लोगों को रामचंद्र जी के व्यापक व्यक्तित्व में सिर्फ वही १-२ प्रसंग दिखते है, जिनकी प्रमाणिकता संदिग्ध और समाज विरोधी है। कुछ लोग यह प्रश्न भी उठा सकते है कि जो प्रसंग अभी जनमानस में बृहद स्तर पर नहीं फैला है, उसका यहाँ उल्लेख करने से प्रसार नहीं हो रहा क्या.. तो उसके लिए इतना ही कहूंगा कि किसी घर में आग लगाने वाले, पूरे घर में एक साथ आग नहीं लगाते.. किसी कोने में लगी आग यदि हम घर वालों से छुपायेंगे तो पता तो सबको चलेगा ही.. लेकिन तब तक शायद देर न हो जाए..। हमें आवश्यकता है कि उसी समय खुद जागरूक हों और लोगों को भी जागरूक करें कि यह आग किसी यज्ञ या हवन की नहीं.. बल्कि आपके अपने आशियाने को जलाने के लिए है। यह अत्यंत दुःखद है कि आज ऐसे प्रसंग सामाजिक राजनीति के केंद्र में है, जो कभी घटित ही नहीं हुए। आज जरूरत है उन षड्यंत्रों को समझने की.. जो कुछ लोगों के क्षणिक स्वार्थ के कारण, भारतीय समाज को बांटने के लिए रचे जा रहे है और जोर-शोर से प्रचारित किये जा रहे है। इस विषय पर और बातें है जो बाद में कहूंगा लेकिन अभी इतना ही कहूंगा कि उस समय शम्बूक का वध हुआ या नहीं हुआ.. अभी आप बेहतर समझ सकते है.. लेकिन कुछ स्वार्थपरक लोग धर्म को विचारधारा तक सीमित करके, शम्बूक-वध के लिए आज अवश्य तत्पर है.. क्योंकि वो नहीं चाहते हैं कि कोई शम्बूक आज तपस्या कर पाए..!

9 comments on “रामायण: क्रौंच-वध से शम्बूक-वध के आधुनिक प्रयासों तकAdd yours →

    1. हम इतने बड़े ज्ञानी नहीं है कि रामचंद्र जी और रामायण को लेकर कोई निष्कर्ष दे सके.. हमारा प्रयास था कि रामायण से सम्बंधित उपलब्ध तथ्य आप लोगों के समक्ष रखे जाए, जिससे आप लोग खुद निष्कर्ष निकाल सके कि शम्बूक वध, सीता निर्वासन आदि से सम्बंधित दुष्प्रचार अपने आप में कितने सत्य है और कितने असत्य.. हाँ, एक निष्कर्ष अवश्य दे सकता हूँ कि सामाजिक/राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित कुछ लोग नहीं चाहते है कि समाज का एक हिस्सा हिन्दू आस्थाओं के प्रति अपना विश्वाश रखे.. वो नहीं चाहते है कि कोई शम्बूक आज के समय में तपस्या के लिए अग्रसर हो.. या फिर चिर-परिचित शब्दों में कहें तो उनका उद्देश्य है बांटो और राज करो..

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