एक बड़ी संगत गुरु गोबिन्द सिंह जी के दर्शन करने के लिए एकत्रित हो गई थी, लेकिन साथ ही सबके मन में एक सवाल भी था, कि आखिरकार ऐसी क्या बात है जो इस वर्ष गुरु जी ने इतना बड़ा समारोह आयोजित कराया है। रीति अनुसार दीवान सजाए गए और फिर कीर्तन समाप्त होते ही गुरु जी के संगत के सामने प्रस्तुत होते ही उनका स्वागत किया गया। गुरु गोबिन्द सिंह जी आगे बढ़े, म्यान में से अपनी तलवार निकाली और नंगी तलवार लेकर मंच के बीचो-बीच जाकर बोले, “मेरी संगत मेरे लिए सबसे प्यारी है। मेरी संगत मेरी ताकत है, मेरा सब कुछ है। लेकिन क्या आप सब में से ऐसा कोई है, जो अभी, इसी वक्त मेरे लिए अपना सिर कलम करवाने की क्षमता रखता हो..?” संगत में एक अजीब सा सन्नाटा.. गुरु जी फिर बोले, “क्या है कोई ऐसा मेरा प्यारा, जो मुझे अपना सिर दे सके? यह तलवार खून की प्यासी है.. है कोई ऐसा.. जो इसी क्षण मेरी इस मांग को पूरा कर सके..?”
जब कोई धर्म/पंथ आगे बढ़ता है तो उसके अनुयायी विभिन्न कारणों से बढ़ते चले जाते हैं, परन्तु वास्तविक अनुयायी तो होते ही गिने चुने हैं जिनका समर्पण इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि उनका स्वयं का अस्तित्व भी नगण्य रह जाता है। इस बात का प्रमाण वर्तमान पंजाब में स्थित, आनंदपुर साहिब के ‘केशगढ़’ किले में मिला। गुरु के इस प्रश्न पर लगभग सभी हक्के बक्के थे.. कोई पीछे खिसक गया.. कोई चुपचाप निकल गया.. किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.. कुछ लोग माता गुजरी के पास पहुंच गए कि गुरु जी आखिर चाहते क्या हैं.. ? हजारों की भीड़ में लाहौर के दया राम आगे आये.. जो गुरुमत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को समर्पित थे.. गुरु साहिब उनको तम्बू में ले गए और एक बकरे की गर्दन काट दी। तम्बू से बाहर निकलते खून को देखकर लोगों का डर और अधिक बढ़ गया। गुरु जी तम्बू से अकेले बाहर आये और एक-एक कर चार सिर और मांगे.. ऐसे माहौल में भी हस्तिनापुर के धर्म दास, द्वारका के मोहकम चंद, जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय और बिदर (महाराष्ट्र) के साहिब चंद आगे आये, जिनका अपने गुरु पर विश्वाश इतना पूर्ण था कि उन्हें अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में तनिक भी संकोच ना जगा.. कुछ देर बाद का दृश्य देख लोग हैरान थे.. गुरु गोबिन्द सिंह जी उन्ही पांच नौजवानों के साथ मंच के बीचो-बीच पहुंचे और बोले, “सिख धर्म को अपने पंज प्यारे मिल गए हैं।”
13 अप्रैल, 1699 को बैसाखी के पर्व के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया.. तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान करके खालसा की नीव रखी जो विधिवत् दीक्षाप्राप्त अनुयायियों का सामूहिक रूप है। सिखों के पास तलवार और केश तो पहले ही थे, गुरु गोबिंद सिंह ने “खंडे बाटे की पाहुल” तयार कर कछा, कड़ा और कंघा भी दिया। ये वही दिन था जब खालसे के नाम के पीछे “सिंह” लगा। अब वे पंज प्यारे ‘भाई दया सिंह’, ‘भाई धर्म सिंह’, ‘भाई हिम्मत सिंह’, ‘भाई मोहकम सिंह’ और ‘भाई साहिब सिंह’ हो चुके थे। गुरु जी की अनुपस्थिति में यह पंज प्यारे गुरु जी के बराबर ही आदेश देने के हकदार बनाए गए। केवल गुरु गोबिंद सिंह के ना होने पर ही नहीं, बल्कि समय आने पर आपसी सलाह से यह पंज प्यारे खुद गुरु गोबिंद सिंह को भी आदेश देने का अधिकार रखते थे। वेशभूषा में खालसा भिन्न जरूर नजर आने लगे परन्तु खालसे ने आत्म ज्ञान नहीं छोड़ा, उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलती रही।
आजकल कुंठा से पीड़ित कुछ लोग जिनके अंदर एक तिनका भी न्यौछावर करने का सामर्थ्य नहीं है.. टी.वी. चैनल्स और मीडिया पर आकर पूछते है कि कोई सन्यासी व्यवसाय कैसे कर सकता है.. कोई साधू युद्ध की बात कैसे कर सकता है.. उसे तो हिमालय पर होना चाहिए या चले जाना चाहिए.. ये वही लोग हैं जिन्हे ना तो भारतीय इतिहास की समझ है और ना ही दर्शन का.. अध्यात्म तो इनके लिए एक कंठस्थ शब्द से ज्यादा कुछ हो ही नहीं सकता.. ये वही देश है.. जहाँ स्वयं को न्यौछावर करके पंज प्यारों ने देश और समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाली.. ये वही देश है जहाँ लक्ष्मणदेव, माधोदास बैरागी हो गए और गुरु गोबिन्द सिंह जी के आह्वान पर बन्दा सिंह बहादुर हो गए.. ये वही देश है जहाँ देश को आक्रांताओं से सुरक्षा की आवश्यकता पड़ने पर चाणक्य ने अपने कर्तव्यों के प्रति पीठ नहीं दिखाई और मगध जैसे साम्राज्य का महामंत्री रहते हुए भी एक साधू सा जीवन-यापन किया.. ये वही देश है जहाँ अखाड़ों ने धर्म और सुरक्षा का संयुक्त बीड़ा उठाया.. ये वही देश है जहाँ कृष्ण जैसे बीतरागी ने युद्धभूमि में अर्जुन जैसे योद्धा को गीता जैसा ज्ञान दिया.. ये वही देश है जहाँ राजा जनक जैसे सन्यासी हुए और उनके माध्यम से अष्टावक्र की महागीता जैसा ज्ञान सम्पूर्ण संसार को मिला.. उन्हें इतनी छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि जिसने स्वयं को ही तिरोहित कर दिया हो.. उसके लिए समस्त संचय और बलिदान दोनों ही व्यर्थ हो जाते है.. वो बाजार में भी खड़े होते है तो पैसा उनके विवेक को नहीं छू सकता.. और जब वो महासमर में भी उतरते है तो किसी तलवार द्वारा छूने के लिए उनमें कुछ भी शेष नहीं होता.. ।
सिक्खों के ऊपर शाशन का वार लगातार बढ़ रहा था.. गलत खबरें दे कर कट्टरपंथियों ने गुरु अर्जुन देव जी (15 अप्रेल 1563 – 30 मई 1606) (सिखों के पांचवे गुरु) के ग्रंथ साहिब के संपादन के सम्बन्ध में अकबर को शिकायत की लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढा के माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया। बाद में जहाँगीर ने अत्यंत यातना देकर उनकी हत्या करवा दी, जिसके कारण आत्म रक्षा और आम जनता की बेहतरी के लिए गुरु हरगोबिन्द जी (19 जून 1595 – 19 मार्च 1644) (सिखों के छठें गुरु) ने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। वह चाहते थे कि सिख शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। गुरु हरगोबिन्द जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे तो जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। जब सूफी फकीर मीयांमीर ने नूरजहां के माध्यम से जहांगीर को गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया और बाबा बुड्डाव भाई गुरदास ने गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया तो जहांगीर ने गुरु जी के साथ-साथ उन ५२ राजाओं को भी आजाद कर दिया जो मुगल सल्तनत के विरोध में पहले से ही कारावास भोग रहे थे, इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को “बन्दी छोड़ दाता” कहा जाता है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहे गुरु हरगोबिन्द जी की शाहजहां से चार बार टक्कर हुयी और सतगुरु हरि राय (16 जनवरी 1630 – 6 अक्टूबर, 1661) (सिखों के सातवें गुरु) पर भी एक हमला हुआ। गुरु हरि कृष्ण (7 जुलाई 1656 – 30 मार्च, 1664) (सिखों के आठवें गुरु) को भी बादशाह औरंगजेब ने अपना अनुयायी बनाने की कोशिश की। गुरु तेग़ बहादुर (1 अप्रैल, 1621 – 24 नवम्बर, 1675) (सिखों के नवें गुरु) को औरंगजेब ने उस समय मौत के घाट उतार दिया, जब वो काश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान ना बनाने की अपील करने गए थे। इन परिस्थितयों तथा औरंगजेब और उसके लोगों द्वारा गैर-मुस्लिम जनता के प्रति अत्याचारी व्यवहार को देखते हुए धर्म की रक्षा हेतु जब गुरु गोबिंद सिंह जी (२२ दिसम्बर १६६६ – ७ अक्टूबर १७०८) (सिखों के दसवें गुरु) ने सशस्त्र संघर्ष का निर्णय लिया तो उन्होंने ऐसे सिखों (शिष्यों) की तलाश की जो गुरमत विचारधारा को आगे बढाएं, दुखियों की मदद करें और ज़रुरत पढने पर अपना बलिदान देनें में भी पीछे ना हटें। पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में २२ दिसम्बर १६६६ को हुआ था, उसी स्थान पर अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। १६७० में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च १६७२ में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया जिसे आजकल आनन्दपुर साहिब कहते हैं। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात वैशाखी के दिन २९ मार्च १६७६ को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की रानी) के अनुरोध पर गुरु गोबिंद सिंह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये। 1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेजा जो जसवाल के गज सिंह से हार गए। सन 1699 में बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है, उसका निर्माण किया। 1704 ईस्वी में मुग़ल फौजों ने आनंदपुर साहिब के किले पर हमला कर दिया, बहुत भयानक लड़ाई हुई। सिक्खों के कहने पर गुरु गोबिंद सिंह ने किला खाली कर दिया, परन्तु मुगलों ने फिर भी पीछे से हमला किया जिससे कई सिक्ख शहीद हुए और सरसा नदी कहर बनकर टूटी। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का सारा परिवार बिछड़ गया और दोनों छोटे साहिबजादों, जोरावतसिंह व फतेहसिंह जी, को सरहंद के सूबेदार ने पकड़कर 27 दिसम्बर सन् 1704 को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया और बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह शत्रुओं से लोहा लेते समय युद्ध में वीरगति प्राप्त कर गए। इस महान शहीदी के बाद ही, इन चार साहिबज़ादों के नाम के आगे ‘बाबा’ लगाकर उनका सम्मान किया गया। इस बात का पता चलने पर उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है। 8 मई सन् 1705 में ‘मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध में गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ उन्हें औरंगजेब की मृत्यु का पता चला, जिसने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् बहादुरशाह को बादशाह बनाने में उन्होंने मदद की जिससे उनके संबंध अत्यंत मधुर थे। इससे घबराकर सरहंद के नवाब वजीर खाँ ने दो पठान जमशेद खान और वासिल बेग, को उनके पीछे लगा दिया। इन पठानों ने उन पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 को गुरु गोबिन्द सिंह जी नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिन्हें गुरुजी ने बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहंद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।
गुरु गोविन्द सिंह जी का नेतृत्व भारत के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने देश और धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें ‘सर्वस्वदानी’ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था क्योकि वो भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है जिसके फलस्वरूप अपना बहुत कुछ लुटाने के बाद भी वो फतहनामा लिख रहे थे और बहुत कुछ पाने के बाद भी औरंगजेब शिकस्त नामा लिख रहा था क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह जी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी स्वार्थ के लिए..। जिसका समर्पण इतना पूर्ण हो जाता है कि उसके पास पाने और खोने को कुछ भी शेष नहीं रहता.. उसी क्षण वो स्वयं में पूर्ण हो जाता है.. सम्पूर्ण!
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