Angkor Wat Temple - aerial view

अंगकोर वाट मंदिर – रहस्य से इतिहास की ओर

आस्था का कोई नियत स्थान तो नही होता परंतु नियत स्थानों से आस्था का उद्भव अवश्य हो सकता है। कभी आस्था से आस्था-स्थल का उदगम होता है तो कभी आस्था-स्थल से आस्था का.. और सदियों तक दोनों का संगम चलता रहता है। ऐसी ही आस्था का स्मारक है मीकांग (Mekong) नदी के किनारे सिमरिप क्षेत्र में बना अंगकोर वाट का मंदिर.. जो अब तक का विश्व का सबसे बड़ा विदित मंदिर परिसर है और कंबोडिया में स्थित है जिसे पौराणिक समय में कंबोदेश के नाम से जाना जाता था। कंबोडियाई वर्षावन में स्थित और विश्व विरासत में शामिल ये मंदिर परिसर, एशिया के सबसे मत्वपूर्ण वास्तुशिल्प की धरोहरों में एक माना जाता है। इस स्थान का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि नासा (NASA) ने उपग्रह चित्रण, हवाई चित्रण, विमान आधारित रडार डेटा, लेजर सर्वेक्षण आदि के माध्यम से इस मंदिर की वास्तुशिल्प, स्थिति और पौराणिकता का लंबे समय तक गहन अध्ययन किया है। यह परिसर 160 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैला हुआ है जिसमे सैकड़ों मंदिर स्थित है। यदि अंगकोर शहरी क्षेत्र की बात करे तो नए अध्ययन कहते है कि यह 900 वर्ग किलोमीटर से लेकर 1000 वर्ग किलोमीटर तक फैला था जो वर्तमान न्यूयॉर्क शहर का लगभग 4 गुना है और औद्योगिकीकरण से पहले संसार का अब तक खोजा गया, सबसे बड़ा शहर था। मंदिर परिसर 174 मीटर चौड़ी खाई से घिरा हुआ है जो हिन्दू मान्यता के अनुसार, ब्रह्मांड के किनारों पर स्थित लौकिक महासागर को व्यक्त करता है। पश्चिमी सिरे पर स्थित पत्थर का मार्ग, प्रतीकात्मक लौकिक महासागर और ब्रह्मांड से होता हुआ, मंदिर के गर्भ गृह तक जाता है जो भगवान विष्णु का मंदिर है। मंदिर परिसर में कई इमारतें स्थित है जो किसी पर्वत की तरह उभरते हुए चबूतरों पर स्थित है। अंगकोर वाट मंदिर के मध्य में 5 मीनारें है जो हिन्दू मान्यता के अनुसार मेरु पर्वत की 5 चोटियों का प्रतीक है। ये गोल मीनारें परिसर के अंतरतम चबूतरे के कोनो और केंद्र को चिन्हित करती है। वास्तव में प्राचीन संस्कृत साहित्य में मेरु पर्वत का अदभुत वर्णन है जो भौगोलिक तथ्यों से भरा हुआ है चूंकि यह अभी भी शोध का विषय है इसलिए सामान्यतः लोगों के लिए काल्पनिक है लेकिन अभी इतना अवश्य सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय, उस समय में भी जब यातायात के साधन नगण्य थे, पृथ्वी के दूरतम प्रदेशों तक जा पहुँचे थे। मत्स्यपुराण में सुमेरु या मेरु पर देवगणों का निवास बताया गया है। कुछ लोगों का मत है कि पामीर पर्वत को ही पुराणों में सुमेरु या मेरु कहा गया है। मेरु पर्वत पौराणिक रूप से वो पर्वत है जिस पर ब्रह्मा और अन्य देवताओं का धाम है और ये शोध का विषय है कि यह पृथ्वी का ही हिस्सा है या फिर ब्रह्माण्ड का.. क्योकि भारत में खगोलिकी की अति प्राचीन, उज्ज्वल एवं उन्नत परम्परा रही है। वास्तव में भारत में खगोलीय अध्ययन वेद के अंग (वेदांग) के रूप में १५०० ईसा पूर्व या उससे भी पहले शुरू हुआ और वेदांग ज्योतिष इसका सबसे पुराना ग्रन्थ है।

अंगकोर वाट मंदिर एक ऐसा स्थान है जहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश.. तीनो की मूर्तियां एक साथ है। इस मंदिर की दीवारें रामायण और महाभारत जैसे पवित्र धर्मग्रंथों से जुड़ी कहानियां कहती है। शोधकर्ताओं ने नासा की तकनीकी का प्रयोग करते हुए इमारत की दीवारों पर लगभग 200 छिपे हुए ऐसे चित्रों को ढूंढा है जिन्हें नग्न आंखों से देखना अत्यंत मुश्किल है। इन चित्रों में शेर, हाथी, हनुमान जी जैसे देवता, वाद्य यंत्र, नौकाएं और प्रतिरूप शामिल हैं जिन्हें प्राचीन भित्तिचित्र माना जाता है। इनमे से एक चित्र इस मंदिर परिसर का भी सम्मिलित है।

अपने मंगल मिशन में नासा ने पानी की खोज के दौरान कुछ ऐसे चित्र भी खिंचे जो अंगकोर वाट मंदिर के प्रतिरूप प्रतीत होते है, हालांकि अभी ये स्पष्ट नही है कि ये प्रतिमा नैसर्गिक संरचना है या फिर कृत्रिम..। इतना ही नही, मंगल ग्रह पर ली गई विभिन्न तस्वीरों में औरत, वृक्षों की कतार और मूषक जैसे वृहद कृन्तक की आकृतियां नजर आई हैं। इन्हें लेकर लोगों के विभिन्न विचार है परन्तु ये आकृतियां जहां स्वयं के होने को पुख्ता तरीके से सिद्ध नही करती है तो इनके ना होने के भी अभी तक पुख्ता आधार नही है। इस तरह की कई बातें है जो हमें किसी समानांतर जीवन संभावना के विषय में सोचने को मजबूर करती आयी है। केवल अंगकोर वाट मंदिर की तरह की आकृति ही नही, बल्कि नासा के क्यूरोसिटी यान द्वारा भेजी गई सुव्यवस्थित पिरामिड की तस्वीरें, परग्रही सभ्यता पर अनुसंधान के लिए प्रेरित अवश्य करती है। खमेर वास्तुकला के प्रतीक अंगकोर वाट मंदिर को देखकर मन में ऐसे प्रश्न उठने स्वाभाविक है कि क्या ऐसी संरचना के पीछे किसी ऐसे ज्ञान या किन्ही ऐसी शक्तियों की भी संलिप्तता है जिनके साक्ष्य या तो अभी तक हमारे सामने नहीं आ पाए है या फिर उपेक्षित है..? इसका ठीक-ठीक उत्तर तो अभी भविष्य के गर्त में है परन्तु हमारे आलस्य के कारण या हमारी बहुमूल्य ऐतिहासिक पुस्तकों के नष्ट हो जाने के कारण.. शायद अभी तक पूर्ण निश्चय के साथ हमें यह उद्घोषित करने का अवसर नहीं मिलता कि हमारी प्राचीन संस्कृति पौराणिक काल में किस श्रेणी तक पहुंच चुकी थी। नासा यदि अपने आलेखों और अनुसंधानों में मेरु पर्वत से लेकर प्राचीन ब्रह्मांडीय परिकल्पना का उद्धरण करता है तो हमें ये समझने की आवश्यकता है कि हमने वेदों और पुराणों में उपलब्ध वैदिक और भौगोलिक ज्ञान को मेरे ज्ञान और तुम्हारे ज्ञान के चक्कर में क्यों उपेक्षित किया या फिर उन्हें संतुलित महत्त्व क्यों नहीं मिला? इन सबके पीछे कहीं ना कहीं हम स्वयं जिम्मेदार है जिससे हमारा इतिहास आज एक प्रकार से प्रमाणों के अभाव में माइथोलॉजी (Mythology) सा बन गया है.. पुराण किवदंती से बन गए है और रामायण, महाभारत को रूपक का रूप मिल गया है। उदाहरणस्वरूप मोहेंजोदारो में जिस सभ्यता का पता चला है, उसका समय ईशा से ३,२०० या ३,३०० वर्ष पूर्व निश्चित किया गया है जिसका अर्थ है कि आज से ५,००० वर्ष पूर्व भारत के पश्चिमोत्तर-प्रदेश में एक ऐसी सभ्यता थी, जिसमें लोहा गलाना, ईंट के मकान बनवाना, नहर ख़ुदवाना, संगमरमर का काम करना, कला, शिल्प-ज्ञान और शीशे का प्रयोग प्रचलित था। फिर क्या भारत के अन्य भागों में कोई ऐसी सभ्यता नहीं रही होगी जो इस सभ्यता से लाभ उठा सकती थी या इसे आगे बढ़ा सकती थी जबकि महाभारत का काल हिन्दू-प्रणाली के अनुसार ईशा से ३,००० वर्ष पहले ही समझा जाता है..? यहाँ पर ये बात उल्लेखनीय है कि हमने जिस सभ्यता की खोज की है मोहेंजोदारो उसका वास्तविक नाम नहीं है और अभी तक उसके मूल नाम की व्याख्या भी नहीं की गयी है..। १९२३ ई. में हरप्पा की खोज का सबसे बड़ा महत्त्व ये है कि उस समय भारत में लिपि प्रचलित थी जबकि योरपीय पण्डितों के अनुसार भारतवासी ईशा से कुछ ही सौ वर्ष पहले लिखना नहीं जानते थे जो अपने आप में बिलकुल असत्य और निराधार प्रमाणित होती है। इसी तरह के कुछ प्रश्न है कि यह सभ्यता आर्यों की है या प्रत्युत अनार्यों की या फिर दोनों की.. आर्य लोग उत्तर की ओर से हिमालय के मार्ग से आये या सिन्धु-नदी की राह से या फिर भारत से ही अन्यत्र फैले..! ये बात इस ओर जरूर इशारा करती है कि भारतीय इतिहास को समझने में या काल निर्धारण में हमारे स्वयं के उपेक्षा के कारण कुछ विसंगतियां है परन्तु यह देखकर संतोष होता है कि इन दिनों यूरोपीय और भारतीय विद्वान् पुराणों के अध्ययन की ओर अग्रसर हो रहे हैं जिसमें भौगोलिक ज्ञान भी भरा पड़ा है। ये बात और है कि स्वार्थ बुद्धि से प्रेरित हो जिस प्रकार हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को एक तुच्छ तथा हेय रूप देना प्रारम्भ किया गया था, उससे शायद छुटकारा मिलने में अभी विलम्ब है क्योंकि उसके लिए हमें योरपीय विद्वानों के मायाजाल के फन्दे से निकलकर स्वतन्त्र रूप से अपने प्राचीन इतिहास का पता लगाना पड़ेगा।

हिन्द-चीन (Indo-China) के दो प्रमुख प्रदेश तोकिन और अनाम जो कि चीन की दक्षिणी सीमा पर अवस्थित है, चीन की सभ्यता से प्रभावित थे जबकि लाओस और कंबोडिया भारत की सभ्यता से..। अनाम के दक्षिण में चम्पा का राज्य था और वहां भारतीय सत्ता कायम थी। चम्पा को आजकल वियतनाम के नाम से जाना जाता है। इस राज्य के शासकों में पहला नाम श्रीमार का आता है। भद्रवर्मन भी यहां के एक प्रतापी राजा थे। चम्पा पूर्णतः भारतीय प्रदेश था और समस्त प्रदेश पर भारतीय संस्कृति का रंग चढ़ा हुआ था। इसी हिन्दचीन का एक राज्य कंबोडिया था जो चम्पा (वियतनाम) के पूर्व में स्थित था और पौराणिक काल मे उसे कंबुज या कंबोजदेश और फिर कंपूचिया के नाम से जाना जाता था। यह भी एक भारतीय उपनिवेश था। प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार कंबोज की नींव राजा कंबु स्वयंभुव ने डाली थी। इसके राजाओं में सभी के सभी शैव सम्प्रदाय के अनुयायी थे और यहां पर अनेक शिव मंदिर आज भी देखे जा सकते है। यहां के लोग अन्य भारतीय देवी-देवताओं जैसे विष्णु, दुर्गा आदि की भी पूजा करते थे। वे वेद, पुराण, महाभारत आदि भारतीय धर्मग्रंथों का पठन-पाठन करते थे। यहां के राजाओं में महेंद्र वर्मा, ईशान वर्मा, जयवर्मा, यशोवर्मा आदि के नाम प्रमुख है। ईशान वर्मा ने अनेकों आश्रम (मठ) बनवाये थे जहां धर्म, शिक्षा आदि की व्यस्था होती थी। इनके राज्य काल मे विष्णु और शिव की संयुक्त मूर्ति का निर्माण किया गया। आज के अंकोर को पुराने समय मे यशोधरपुर के नाम से जाना जाता था जिसे नौवीं शताब्दी में यशोवर्मा ने अपनी राजधानी बनाया। वर्तमान अंगकोर वाट मंदिर का निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112-53ई.) जिन्हें सूर्यवर्मा द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है, के शासनकाल में बारहवीं सदी में हुआ था जो इस बात का प्रमाण है कि एक समय हिन्दू धर्म और वैष्णव संप्रदाय कंबोडिया में ना सिर्फ अपने उत्कर्ष पर था बल्कि वहां का राजधर्म भी था। कंबोडिया वो देश है जहां पर 6वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक देवभाषा संस्कृत को राष्ट्र भाषा का स्थान प्राप्त था। सदियों के काल खंड में 27 राजाओं ने कंबोडिया पर राज किया , जिनमें से कुछ शासक हिन्दू और कुछ बौद्ध थे। कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं तथा आज भी जगह जगह हिन्दू और बौद्ध धर्मों के अवशेष मिलते है। चौदहवीं सदी में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने पर शासकों ने अंगकोर वाट मंदिर को बौद्ध स्वरूप दे दिया। धीरे धीरे यह मंदिर उपेक्षित होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसे फ्रांसिसी अन्वेषक और प्रकृति विज्ञानी हेनरी महोत ने 19वीं शताब्दी के मध्य में ढूंढ निकाला। 1986 से लेकर 1993 तक भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) ने इस मंदिर के संरक्षण का कार्य किया जो कि आज आस्था और पर्यटन का एक बड़ा गंतव्य है। कंबोडिया की सीमाएं पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व और उत्तर-पूर्व में लाओस तथा वियतनाम एवं दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती है। अंकोरवाट का मंदिर कम्बोडिया के लिए क्या महत्व रखता है इसका अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि कम्बोडिया के राष्ट्र ध्वज पर यह मंदिर प्रतीक के रूप में बना हुआ है। संस्कृत से जुड़ी भव्य संस्कृति के प्रमाण अग्निकोणीय एशिया के इन देशों में आज भी विद्यमान हैं। कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड, वियतनाम आदि देशों में खोजे गए अधिकतर शिलालेख संस्कृत भाषा मे पाए गए है। कुछ ही शिलालेख पुरानी खमेर में मिलते हैं। कंबुज, मेर ने अपनी भाषा लिखने के लिए भारतीय लिपि अपनाई थी। आधुनिक खमेर भारत से ही स्वीकार की हुई लिपि में लिखी जाती है। वास्तव में ग्रंथ ब्राम्हीश ही आधुनिक खमेर की मातृलिपि है। आज कंबुज भाषा मे 70 प्रतिशत शब्द सीधे संस्कृत से लिये गए है जिसे कौंतेय कहते है।

म्यांमार से लगती मणिपुर की सीमा पर चन्देल ज़िले का मोरेह नगर स्थित है जहाँ से लेकर म्यांमार के कालेमऊ तक एक सौ साठ किलोमीटर लम्बी सड़क का निर्माण भारत सरकार ने किया है जो भारत और म्यांमार को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सैकड़ों वर्ष पहले इसी मार्ग से म्यांमार के तामु नाम के शहर से होकर भारत के तीर्थ यात्री कम्बोडिया में स्थित विष्णु के ऐतिहासिक अंगकोर वाट मंदिर की तीर्थयात्रा के लिये जाते थे लेकिन कई सौ साल पहले हालात बदल जाने के कारण अंगकोर मंदिर की यह तीर्थयात्रा बंद हो गयी। जो भारतीय कभी दुनिया के हर देश में गये थे, इस्लामी आक्रमणों से उत्पन्न हुई स्थिति के कारण, जब उन्होंने सागर पार का ही निषेध कर दिया तो ऐसे वातावरण में अंगकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा का बच पाना भी लगभग अप्रत्याशित ही था जिसे पुनः शुरु करने के प्रयत्न हो रहे हैं। मोरेह से कालेमऊ तक की यह सड़क स्थलमार्ग से थाईलैंड से जुड़ी हुई है और वहाँ से कम्बोडिया के अंगकोर मंदिर तक सड़क जाती है। भारत-थाईलैंड-कम्बोडिया में अंगकोर मंदिर की इस यात्रा को लेकर यदि कोई व्यवस्था बन जाती है तो इन तीनों देशों में पर्यटन को भी बढ़ावा मिल सकता है। असम से मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल को रेलमार्ग से जोड़ने का कार्य अभी चल रहा है जिसे मोरेह तक लाने की भी योजना है। इस प्रकल्प के पूरा हो जाने से भारत म्यांमार रेल मार्ग से भी जुड़ जायेगा जो भविष्य में अंगकोर वाट मंदिर यात्रा के लिए एक सुगम विकल्प हो सकता है।

भारत ही नही, यदि विश्व का इतिहास देखा जाए तो यह ऐसा विषय है जिसका एक शिरा तो काफी हद तक आज स्पष्ट है लेकिन सदैव स्पष्ट रहेगा.. ऐसा दावा करने की गलती कोई भी विवेकवान व्यक्ति नही कर सकता, जैसा कि इसके दूसरे सिरे के साथ भी है जिसका एक बहुत बड़ा हिस्सा समय के गर्त में दबा है और कुछ-कुछ अंश समय के साथ बाहर आते रहते है। इतिहास यदि अपने आप को विज्ञान-सम्मत समझता है तो उसे प्रत्येक संभावना के लिए खुला होना चाहिए। आज का सत्य आज का ही सत्य है ना कि अंतिम सत्य..। एक सत्य यह भी है कि जो सभ्यताएं अपनी संस्कृति और मूल्यों को विस्मृत कर देती है समय के साथ वो सभ्यताएं भी विस्मृत हो जाती है क्योंकि उनका स्वाभिमान खत्म हो जाता है और यदि स्वाभिमान सामूहिक हो तो निश्चितरूप से लोगों को जोड़ने और प्रगति में सहायक होता है। भारत मे कुछ विचार ऐसे भी है जो पौराणिक इतिहास को हेय-दृष्टि से देखने की कोशिश करते है और उससे जुड़े लोगों को पुरातनपंथी समझते है क्योंकि वो खुद को उससे जोड़ नही पाते लेकिन ये वही लोग है जिन्हें अपने खुद के इतिहास का कोई बोध नही..। उनका अंतिम तर्क होता है कि पीछे देखने से हमे आत्म-मुग्धता के सिवा कुछ नही मिलेगा इसलिए हमे आज में जीना चाहिए.. तो इस पर चर्चा कभी बाद में.. लेकिन अभी इतना ही कहूंगा कि यदि उन्हें सच मे आज में जीने की कला सीखनी है तो फिर उन्हें हमारे उसी इतिहास की तरफ ही देखना होगा जिसने सदियों के शोध के उपरांत, आज और अभी में जीने का मार्ग भी दिखाया है और उसकी कला भी सिखाई है और जिसे वो आज में जीना समझते है वो मादकता के सिवा कुछ नही..। आप इतिहास को भूल सकते है या छोड़ सकते है लेकिन स्मरण रखिये कि इतिहास ना तो आपको भूलता है और ना ही छोड़ता है.. किसी न किसी रंग में रंगता जरूर है फिर वो कितना ही गौण क्यो ना हो.. और फिर किसी ना किसी नासा की, कोई ना कोई लेजर तकनीकी समय के पटल पर उसके हर एक रंग को कभी ना कभी उकेर ही देती है.. आने वाले भविष्य के लिए..।

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  7. मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है की यहाँ बात अंगकोर्वाट मंदिर की हो रही है और comment ब्लॉग्गिंग के आ रहे हैं हहहहहाह

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