पद्मावत: राजपुताना शौर्य से अभिवयक्ति तक

पद्मावत: राजपुताना शौर्य से अभिवयक्ति तक

अनंतोगत्वा पद्मावत विवाद एक ऐसे स्थिति तक पंहुचा.. जहां से लगभग सभी लोगों को लाभ कम, हानि ज्यादा हुई। मेरे इस वाक्य पर सभी लोग तरह-तरह की सांत्वना गढ़ सकते है कि यह किसी लाभ की नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मान-सम्मान आदि की लड़ाई थी लेकिन बात फिर वहीँ आकर रूकती है कि अनंतोगत्वा हासिल क्या है..? सोचने पर अनेकों प्रश्न मष्तिष्क में उभरते है.. क्या संजय लीला भंसाली जैसे बड़े डायरेक्टर को विवाद से बचना चाहिए था और शुरुआत से ही किसी समाधान की तरफ बढ़ना चाहिए था जो शायद नहीं हो पाया? क्या करणी सेना को किसी तार्किक समाधान का प्रयास करना चाहिए था जो शायद नहीं हो पाया? क्या भंसाली जी को प्रतिनिधियों को दूर रखकर सिर्फ प्रमाणन बोर्ड को ही विमर्श में सम्मिलित करना चाहिए था या फिर जब सम्मिलित किया था तो प्रमाणन बोर्ड के साथ-साथ उन प्रतिनिधियों के विचारों को भी महत्त्व देना चाहिए था? क्या करणी सेना को सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अपनी रणनीति पर परिपक्व तरीके से पुनः-विचार करना चाहिए था? क्या करणी सेना को स्कूल बस पर पथराव करना चाहिए था या फिर वो करणी सेना के नाम पर कुछ बहरूपिये या अपरिपक्व राजपूत थे.. आदि-आदि..?

भंसाली जी के सही गलत पर तो कई लोग कई तरीके से अपनी बात रख चुके है। कुछ लोग पद्मावत की कमाई से खुश हो सकते है तो कुछ लोगों को उम्मीद के अनुरूप ना हो पाने वाला लाभ या हानि दिख सकता है। कुछ लोगों के अनुसार इस विवाद के कारण भंसाली जी की प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकती है, परन्तु मैं बात करना चाहता हूँ उस राजपूती तलवार की, जिसकी अपनी एक गरिमा, एक अस्मिता रही है.. मुझे “बाहुबली-२” का एक संवाद याद आता है, जब बाहुबली कहता है.. “देवसेना को किसी ने हाथ भी लगाया तो समझो, बाहुबली की तलवार को हाथ लगा दिया..” और सभा में एक सन्नाटा छा जाता है.. दंडनायक सहित समस्त सैनिकों के पाँव पीछे हट जाते है.. हममें से बहुतों ने उस दृश्य पर बाहर से न सही, लेकिन मन ही मन तालियां बजाई होंगी और सही गलत का निष्कर्ष भी निकाला होगा। यहाँ मैं किसी सही या किसी गलत की बात नहीं कर रहा। मेरा तात्पर्य इस बात से है कि एक राजपूत के लिए उसके शस्त्र का क्या महत्त्व होता है, इस वाक्य से अच्छी तरह समझा जा सकता है.. उतना अधिक पीछे की कल्पना यदि मुश्किल लग रही है तो आज की परिस्थिति में एक सैनिक के लिए उसके शस्त्र के महत्व की कल्पना अवश्य कर सकते है..। भारतीय संस्कृति का एक विधान ये भी रहा है कि हमारे यहाँ शस्त्रों और शास्त्रों दोनों की पूजा आज भी होती है.. इसी बात से इस महत्त्व को समझा जा सकता है कि एक साधक के लिए साधन का कितना महत्व होता है..। यदि और अधिक गहराई में जाना चाहते है कि किसी भी वर्ग के लिए उसका साधन कितना महत्वपूर्ण होता है, तो उसके विषय मे विचार करके आसानी से कल्पना कर सकते है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी साधन हो.. शस्त्र, शास्त्र या फिर कुछ और.. ये सदैव उन्ही हाथों में सौंपे जाते है, जो उनके अधिकारी हो.. अन्यथा दुरूपयोग की संभावना बढ़ जाती है.. ये परिपाटी कल भी थी, आज भी है और सदैव रहेगी.. और जब भी ऐसा नहीं होता, तो उसका दुष्परिणाम, व्यक्तियों और समाजों को भुगतना पड़ा है..। कुछ ऐसा ही देखने को तब मिला, जब सुप्रीम कोर्ट ने सारे प्रतिबंधों को निरस्त करते हुए, पद्मावत के प्रदर्शन को हरी झंडी दे दी। उसके तुरंत बाद कुछ लोगों ने ऐसे बयान दिए जो उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नही थे। गोरा-बादल को मानक के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले लोग, ये भूल गए कि एक राजपूत के लिए अनुशाशन क्या होता है.. जिन गोरा को राज्य से निष्काशन मिला, उन्होंने राज्य के विरुद्ध ना तो तब अपनी तलवार पर हाथ रखा और ना ही किसी अहम का प्रदर्शन तब किया, जब रानी पद्मावती खिलजी के चंगुल से राजा रत्नसिंह को छुड़ाने के लिए उन्हें वापस बुलाने गई। क्या ऐसा मात्र इसलिए था कि वो किसी राजपूत के विरुद्ध नही जा सकते थे, जैसा कि आजकल कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी या षड्यंत्रकारी एक दुसरे के विरुद्ध भड़काने के लिए कह सकते है, तो ऐसा सोचना भी गलत होगा क्योंकि राजपूतों की तलवारें अक्सर राजपूतों के विरुद्ध ही उठती रही है। नही.. ये उसी अनुशासन, शौर्य और समर्पण का प्रतिबिंब था जिसके लिए राजपूतों ने अपने और अपनों के शीश में कभी भी अंतर नही समझा। यह वो शृद्धा थी जो व्यक्ति से ज्यादा अपने राज्य या देश के प्रति, राजपूतों के रग-रग में हिलोरें मारती रहती है और जो उनके संस्कारों एवं गौरव-गाथाओं में बचपन से ही कूट-कूट कर भरी होती है।

पद्मावत के विरोध में, मेरे देखे, दो घटनाएं ऐसी थी जो राजपूतों की प्रतिष्ठा के अनुरूप नही थी। पहली घटना कुछ लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के प्रति सम्मानजनक रास्ता ना अपनाना और दूसरी, स्कूल बस पर हमला.. जिसमे से दूसरी घटना ऐसी थी जो अत्यंत घृणित एवं निम्नस्तरीय थी और जिसका सम्यक कारण करणी सेना तो क्या, किसी भी सभ्य समाज के पास नहीं हो सकता है। कारण साफ है.. जब आप अपने हथियार खुले तौर पर असुरक्षित छोड़ देंगे, तो उनका दुरुपयोग कोई भी कर सकता है और जिसकी आंच आपकी ही प्रतिष्ठा और विश्वाशनियता पर आएगी। कुछ ऐसा ही हुआ करणी सेना के साथ.. जब उन्होंने विरोध के चक्कर में राजपूती अस्मिता की तलवार उस भीड़ के हाथों में दे दी जिसका अपना कोई विवेक नहीं होता। ऐसी भीड़ों में अपरिपक्व लोग भी हो सकते है, बहरूपिये भी और साजिशकर्ता भी.. जो आपकी मेहनत और प्रतिष्ठा को एक झटके में धूमिल कर सकते है इसीलिए जितना एक सैनिक का साहस महत्वपूर्ण होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है उसके नेतृत्व की क्षमता.. जो उसे भीड़ से अलग करती है। एक सैनिक के तैयार होने में कल भी ना जाने कितना खून-पसीना और रातों की नीदें लगती थी और आज भी.. लेकिन जब आप अपरिपक्व लोगों को मैदान में उतारते हैं, तो परिणाम कुछ ऐसा ही होता है अन्यथा १६ हजार लोगों को जौहर करने की जरूरत ना पड़ती.. वो भी तलवार लेकर मैदान में उतर सकती थी।

इतिहासकारों का पक्ष-विपक्ष हो सकता है लेकिन इतिहास सदैव तटस्थ होता है.. वो यदि शौर्य-गाथाओं को अंकित करता है तो गलतियों को भी.. और ये एक ऐसा अध्याय था जिसका मुख्य केंद्र बनी भी तो, दोनों पक्षों की कुछ गलतियां.. और जिसका कई मौकापरस्त अभी भी अपने-अपने लाभ के लिए दुरूपयोग कर रहे है। कुछ लोग ४% और १४% की तुलना सुनकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते होंगे लेकिन वो भूल जाते है कि वो उनका गुणगान नहीं कर रहे बल्कि लोगों को भड़काकर अपना एक अलग प्रकार का हित साधने में लगे है। आज ना सिर्फ हमें समझने की जरूरत है कि हम अपने गौरवपूर्ण इतिहास और धरोहरों की सुरक्षा कैसे करेंगे बल्कि उन कुटिल चालों और षड्यंत्रों के प्रति भी सजग रहने की जरूरत है जो अंदर ही अंदर हमें अपनी जड़ों से काटने और जातिगत या धर्मगत संघर्षों में उलझाने की साजिश बुनते रहते है या फिर मौके की तलाश में रहते है। राजपूतों ने इस देश को सदैव गौरव के क्षण दिए है जहां अदम्य साहस और विवेक का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है इसलिए इस बात को भी समझने की जरूरत है कि इन दोनों में से किसी एक की भी कमी, क्षमता को कम करने का ही काम करेगी। इन बातों से मेरा उद्देश्य किसी की भी आलोचना करना नहीं है.. क्योंकि मैं आलोचक तो कदापि नहीं हूँ। ये मेरे व्यक्तिगत विचार है, जिससे कोई भी सहमत या असहमत हो सकता है लेकिन विचार करने की आवश्यकता सभी को है, चाहे वो पक्ष में हो, विपक्ष में हो या फिर तटस्थ..!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

-रामधारी सिंह दिनकर

4 comments on “पद्मावत: राजपुताना शौर्य से अभिवयक्ति तकAdd yours →

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