Porus- A historically forgotten Hero

राजा पोरस – ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित एक नायक

१२ वीं सदी में एक आक्रमणकारी अपने कुछ घुड़सवारों के साथ उस समय भारत के उच्च शिक्षा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात विश्वविद्यालय में पहुंचा, जहां देश और विदेश के हजारों विद्यार्थी पढ़ते थे और जहाँ धर्म ही नहीं, राजनीति, शिक्षा, इतिहास, ज्योतिष, विज्ञान आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। उस विश्वविद्यालय में तीन पुस्तकालय थे जिनमें हजारों हस्तलिखित पुस्तकें और लाखों छपी हुई किताबें थीं। कहते है वो आक्रांता अपने हाथ में एक धार्मिक पुस्तक लेकर पंहुचा और उसने वहां के लोगों से पूछा “क्या यहां रखी हुयी पुस्तकों में वही लिखा है जो इस पुस्तक में लिखा है..? यदि हाँ, तो उन पुस्तकों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता.. और यदि उन पुस्तकों में वो नहीं लिखा है, जो इस पुस्तक में लिखा है, फिर तो उनका और भी महत्त्व नहीं रह जाता।” और उसने उस पुस्तकालय में आग लगा दी.. कहते हैं वो पुस्तकालय ३ महीने से ज्यादा वक़्त तक धूं-धूं करके जलता रहा। ये इतिहास फिर कभी.. लेकिन कहने का तात्पर्य ये है कि इस तरह के तर्क होते है आक्रांताओं के.. और इस तरह से खो जाया करती है धरोहरें, शभ्यताएँ और इतिहास.. जिसके कारण हम आज भी तर्कों और कुतर्कों के भंवर में झूल रहे हैं कि रानी पद्मावती ऐतिहासिक थी या मात्र साहित्य एवं लोक-कथा का हिस्सा..!

राजा पुरुवास या राजा पोरस या राजा पुरू के बारे में जो भी लिखित जानकारी मिलती है वो ग्रीक स्रोतों के आधार पर ही मिलती है जिसका एक बड़ा कारण ये था कि भारत में अतीत को याद रखने के लिए लोक-कथाओं, स्तोत्रों, काव्यों आदि की ही प्रथा प्रचलित थी जिसमे ज्यादा जोर कथा-चरित्र और सार पर होता था ना कि लेखक पर..। पश्चिमी प्रभाव के बढ़ते-बढ़ते, लोगों का रुझान लिखित इतिहास की ओर मुड़ता चला गया जिसे आज के समय में वैज्ञानिक और तथ्यात्मक माना गया है| जो संस्मरण, काव्य, कथा या ज्ञान लिखितरूप में उस समय उपलब्ध भी था उसका एक बड़ा भाग हज़ारों वर्षों की उठापटक में इसी प्रकार नष्ट होता गया। शायद ये आक्रांताओं या परिस्थितियों का ही भय रहा होगा जिसके कारण भारत ने इतिहास को याद रखने के लिए उस विधा का प्रयोग किया जिसे हम काव्य या सूत्र कहते है। इसका सबसे बड़ा फायदा ये था कि काव्यरूप में उन कथाओं को स्मरण रख पाना ज्यादा सरल होता है, जिससे उसके खोने या नष्ट होने पर भी पुनः संकलन की संभावना बनी रहती है। ये बात और है कि जब हम किसी बात को काव्यरूप में प्रस्तुत करने जाते है तो अपनी कल्पना-शक्ति का भी कुछ सहारा अवश्य लेते है जिसका ये अर्थ कदाचित नहीं लिया जा सकता कि काव्य केवल कल्पना पर आधारित विषय है और यदि कोई ऐसा समझता है तो ये उसका स्वयं का आरोपण है।

राजा पोरस, जिन्हें भारतीय इतिहासकार राजा पुरु कहते है, भौगोलिक स्थिति के अनुसार उनका सम्बन्ध प्राचीन पुरूवास वंश से जोड़ते है और उनके बारे में माना जाता है कि प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ मुद्राराक्षस में वर्णित राजा पर्वतक ही पोरस है। सिकंदर के आक्रमण करने पर तक्षशिला और अभिसार के राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली जबकि राजा पुरु ने युद्ध का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप ३२६ ई. पू. में झेलम नदी के तट पर एक भीषण युद्ध लड़ा गया जिसे हम “झेलम की लड़ाई” के नाम से जानते है और जिस युद्ध में राजा पुरु को तक्षशिला और अभिसार के भारतीय सैनिकों से भी लड़ना पड़ा। ग्रीक इतिहास में इसे “बैटल ऑफ़ द हैडस्पेस” के नाम से जाना जाता है क्योकि यूनान या ग्रीक में झेलम नदी को “Hydaspes” के नाम से जाना जाता है। सिकंदर की सेना के ५० हजार पैदल सैनिक, ७ हजार घुड़सवार के मुकाबले राजा पुरु के पास मात्र २० हजार पैदल सैनिक, ४ हजार घुड़सवार, ४ हजार रथ और १३० हाथी थे परन्तु झेलम के बहाव से पार पाना सिकंदर के लिए सबसे मुश्किल कार्य था। रात में अपने ११ हजार सैनिकों के साथ सिकंदर झेलम के उत्तर दिशा की तरफ गया, जहाँ उसने नदी को पार करने का एक आसान रास्ता ढूंढ निकाला। इस बात की खबर लगते ही राजा पोरस ने कुछ सैनिकों के साथ अपने पुत्र को उस तरफ भेजा लेकिन वो छोटी सी सेना के साथ सिकंदर को रोकने में विफल रहा और वीरगति को प्राप्त हुआ। अंततः राजा पोरस और सिकंदर के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। राजा पोरस के हाथियों ने ऐसा कोहराम मचाया कि बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले यवन, ८ घंटे लड़ने के बाद भी युद्ध नहीं जीत पाए। वैसे तो ग्रीक साहित्यों में लिखा है की पोरस की बहादुरी को देखते हुए सिकंदर ने उसे माफ़ कर दिया, जैसा कि अक्सर चाटुकार इतिहासकार करते है लेकिन ग्रीक विद्वान प्लूटार्क ने लिखा है कि आठ घंटे के इस युद्ध में किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। कुछ भारतीय इतिहासकार भी दावा करते है कि इस युद्ध में सिकंदर बुरी तरह पराजित हुआ था लेकिन यदि ये सच होता तो सिकंदर व्यास नदी के तट तक नहीं पहुँच पाता। इससे स्पष्ट होता है कि राजा पोरस और सिकंदर के मध्य संधि हुयी थी जिसकी पृष्ठभूमि में पोरस की वीरता और विवेक का समन्वय दिखता है क्योकि सिकंदर की विशाल सेना, जिसमे तक्षशिला और अभिसार के भारतीय सैनिक सैनिक भी शामिल थे, के साथ युद्ध लम्बा तो खींचा जा सकता था लेकिन अनुकूल परिणाम प्राप्त करना दुष्कर था जबकि सिकंदर के लिए राजा पोरस से पार पाना जितना दुष्कर था उससे भी अधिक घातक था उसको होने वाली क्षति.. जो उसकी आगे की राह बंद कर सकती थी। परिणामस्वरूप एक ऐसी संधि की रूपरेखा तैयार हुयी जिसके अंतर्गत राजा पोरस को सिकंदर की सैनिक सहायता करनी थी और सिकंदर को व्यास नदी के तट तक जीते हुए समस्त राज्य, राजा पोरस को देने थे जिन पर राजा पोरस, सिकंदर के मित्र की तरह शासन करेंगे। सिकंदर को “विश्वविजेता” की तरह प्रस्तुत करने वाले पश्चिमी प्रभाव के इतिहासकारों के विपरीत, अनेक यूरोपीय विद्वानों व इतिहासकारों द्वारा लिखे गए वृत्तान्त इस सन्दर्भ में दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं और इतिहास के सामने एक भिन्न तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। कर्टियस, जस्टिन, डियोडोरस, ऐरियन और प्लूटार्क जैसे विद्वान इस सन्दर्भ में विश्वसनीय और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराते हैं कि सिकन्दर पोरस से पराजित हुआ था और उसे अपनी तथा अपने सैनिकों की जीवन रक्षा के लिए पोरस से सन्धि करनी पड़ी थी। भारत का “विजय अभियान” उसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ और भारत से वापसी के समय उसकी सारी आशाएं धूमिल हो चुकी थीं। यद्दपि कठ या कथ राज्य पर विजय के लिए राजा पोरस २० हजार सैनिकों को लेकर सिकंदर की सहायता के लिए पहुंचे परन्तु विचार करने की बात यह भी है कि उत्तर के सुगम रास्ते के विपरीत, सिकंदर दक्षिण की तरफ क्यों बढ़ा जहाँ भारत की खूँखार जन-जाति उसके लिए डर और खतरे का कारण बन गयी। निश्चितरूप से इसके मूल में राजा पोरस के साहस के अतिरिक्त उनकी दूरदर्शिता शामिल थी जिसने एक संधि का रूप लिया। राजा पोरस की मृत्यु के सम्बन्ध में भी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है लेकिन विभिन्न मतों के अनुसार कुछ लोग मानते है कि उनकी हत्या विषकन्या द्वारा कराई गयी थी जबकि कुछ लोगों का मानना है कि सिकंदर के एक सेनापति युदोमोस ने ३२१ से ३२५ ई.पू. के मध्य राजा पोरस की हत्या कर दी थी।

कुछ लोग राजा पोरस द्वारा कठों के विरुद्ध सिकंदर की सहायता को स्वार्थ की तरह भी देखते है लेकिन समझने की बात यह है कि जब राजा अम्भि जैसे लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या द्वेष को साधने के लिए सिकंदर के साथ पहले ही एकत्र हो चुके हों तो देशहित के लिए मात्र साहस की ही नहीं, विवेक की भी आवश्यकता होती है। स्वार्थ तो प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक निर्णय में सम्मिलित होता ही है लेकिन भेद इस बात में है कि स्वार्थ का स्वरुप व्यक्तिगत है अथवा देश और समाज के हित में..। स्वार्थ और सेवा के मध्य एक बारीक सी लकीर होती है जिसका निर्धारण भविष्य के गर्त में होता है। अनुकूल परिणाम दूरदर्शिता के परिचायक बन जाते है जबकि प्रतिकूल परिणाम स्वार्थ का कारक.. और इस प्रकार राजा पोरस का निर्णय किसी भी तरह से स्वार्थ के ढाँचे में नहीं बिठाया जा सकता क्योकि उनका निर्णय अनुकूल भी था और दूरदर्शी भी..। वो ऐसा समय था जब भारतवर्ष का प्रत्येक राज्य आपस में एक दुसरे से ईर्ष्या और द्वेष का भाव रखता था। इन्ही परिस्थितियों से उद्वेलित होकर कौटिल्य (चाणक्य) ने अखंड भारत के स्वरुप की परिकल्पना की और मुद्राराक्षस के अनुसार राजा प्रवर्तक अर्थात राजा पोरस अर्थात राजा पुरु ने राजा घनानंद के विरुद्ध कौटिल्य और राजा चन्द्रगुप्त का साथ दिया। किसी भी निर्णय के सार को समझने के लिए ना सिर्फ उसके परिणाम की विवेचना आवश्यक है बल्कि उस समय और काल के परिस्थितियों की भी..। इस प्रकार देखा जाए तो राजा पोरस ने ना सिर्फ सिकंदर के विजय रथ को रोका बल्कि कौटिल्य के अखंड भारत की परिकल्पना की नीव रखने में भी योगदान दिया। राजा पोरस के इतिहास और योगदान के विषय में हमें एक बार पुनः समझने की आवश्यकता है क्योकि ग्रीक अभिलेखों के आधार पर उनके एक वाक्य को ही उनका सच और व्यक्तित्व बनाके प्रस्तुत किया गया.. और वो है- “उनके साथ वही व्यवहार किया जाय जो एक राजा, दुसरे राजा के साथ करता है“| कुछ इतिहासकारों ने राजा पोरस को यदुवंश से जोड़कर देखने की कोशिश की है लेकिन स्पष्ट प्रमाण ना होने के कारण उनके इतिहास के साथ शायद समयोचित न्याय नहीं हो पाया क्योकि आजादी के कुछ दशक पहले से ही बुद्धिजीवियों या साधन समर्थ लोगों ने ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को धर्म और जाति की कसौटी पर कसना शुरू कर दिया था और समय के साथ भारतीय महापुरुषों को समग्रता से निकालकर जाति, धर्म और वैचारिकता की बेड़ियों में कैद करने का पूरा प्रयास किया गया।

राजा पोरस को लेकर कई फ़िल्में और धारावाहिक की श्रृंखला प्रसारित हो चुकी है जिसकी कड़ी में सोनी नेटवर्क ने एक नए धारावाहिक की श्रृंखला २७ नवंबर से शुरू की है जिसका नाम है.. “पोरस“। देखने का विषय ये है की आने वाले समय में इस धारावाहिक श्रृंखला में राजा पोरस के किस व्यक्तित्व को दर्शाया जाता है क्योकि फिल्मों और धारावाहिकों का जन-मानस पर एक गहरा प्रभाव पड़ता है। उम्मीद है कि राजा पोरस पर आधारित ये कहानी उस गौरवपूर्ण इतिहास के साथ पूरी तरह न्याय करेगी, जिसने भारत पर किसी विदेशी आक्रमण की दिशा और दशा दोनों बदल के रख दी थी।

14 comments on “राजा पोरस – ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित एक नायकAdd yours →

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    “उनके साथ वही व्यवहार किया जाय जो एक राजा, दुसरे राजा के साथ करता है“ इतना कह देने से सिकंदर सोने की चिड़िया पर राज करने से भला कैसे खुद को रोक सकता है और सिकंदर व्यास नदी तक इसलिए पहुंचा क्योंकि वह हार गया था और पोरस जो की एक महान राजा और भारतीय संस्कृतियों से परिपूर्ण राजा था उसने अपना धर्म निभाने के लिए उसको वहां तक आने दिया
    लेकिन अब देखना यह है है SONY TV पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक पोरस में इसका क्या अंत दिखाया जाता है आशा है की इस बार पोरस के विश्वास के साथ न्याय हो

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