Rani Padmini, A historical character or literary character..

रानी पद्मावती, एक ऐतिहासिक चरित्र या साहित्यिक चरित्र..?

रानी पद्मावती.. एक ऐतिहासिक चरित्र या काव्य चरित्र..? बहुत सारे लोगों को इस तथ्य में दिलचस्पी है और बहुत सारे लोगों का अपना मत..। चरित्र कोई भी हो, ऐतिहासिक या साहित्यिक.. उसका महत्त्व इस बात में निहित होता है कि वो कितने लोगों के लिए प्रेरणा या शिक्षा का कारण बन सकता है और जहाँ तक इस दृष्टिकोण की बात है, राजस्थान की भूमि से निकले व्यक्तित्व ही नहीं, वहां की मिट्टी भी सदैव से लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है और रहेगी। अब सोचने की बात ये है कि आज इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत क्यों है.. क्योंकि बॉलीवुड के महान निर्देशक संजय लीला भंसाली ने इस विषय पर एक फिल्म बनाई है, जिसके बारे में उन्होंने बहुत समय से सोच रखा था परन्तु उससे आगे सोचने की बात ये है की रानी पद्मावती का चरित्र, एक ऐसा चरित्र है जिसके बारे में समय ने, विधि ने या किसी साहित्यकार ने उनसे ५०० या ७०० से ज्यादा वर्ष पहले ही सोच लिया था और जो एक समुदाय के लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए गौरव और प्रेरणा का स्रोत रही है। आज जब विवाद को अभिवक्ति की स्वतंत्रता, कला की अभिव्यक्ति या ऐतिहासिकता की ओर मोड़ने का प्रयास किया जा रहा है, तब हम ये भूल जाते है कि जिस चरित्र को हम कला की अभिव्यक्ति के नाम पर पुनः लिखने का प्रयास कर रहे है, वो किसी समाज और देश के लिए गौरव और सम्मान का विषय है। पिछले दिनों एक अंग्रेजी समाचारपत्र ने इतिहासकारों के हवाले से लिखा था कि, “पद्मिनी असल में नहीं थी, अपितु मशहूर सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी के १५४० में रचे काव्य ‘पद्मावत’ का काल्पनिक पात्र था।” वरिष्ठ इतिहासकार इरफान हबीब ने भी उदयपुर में दावा किया है कि, “जिस पद्मावती के अपमान को मुद्दा बनाकर करणी सेना और दूसरे संगठन विरोध कर रहे हैं, वैसा कोई पात्र वास्तविकता में था ही नहीं, क्योंकि पद्मावती पूरी तरह से एक काल्पनिक चरित्र है।” गीतकार जावेद अख्तर ने भी पिछले दिनों ट्वीट किया- “पद्मावत इतिहास नहीं, अपितु एक काल्पनिक कहानी है। पद्मावत पहला हिंदी नॉवल है, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अकबर के दौर में लिखा था। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे कि अनारकली और सलीम।” ऐतिहासिकता को हम अभी पीछे भी रख दें तो उस आत्म-सम्मान का क्या, उस गौरव का क्या.. जो रानी पद्मावती का जिक्र आते ही लोगों के चेहरे पर झलकने लगता है.. उन भावनाओं का क्या, जो लोगों को आज भी उस समय, उस काल का अनुभव करा जाती है.. उन उम्मीदों का क्या, जो अपने आने वाली पीढ़ियों में भी उसी अदम्य साहस की कल्पना मात्र से प्रफुल्लित हो जाती है..। इन बुद्धिजीवियों को इतिहास से खेलने का अधिकार तो है, परन्तु क्या लोगों की भावनाओं से छेड़छाड़ का अधिकार भी होना चाहिए..? हाँ, एतहासिक तथ्यों से भी छेड़छाड़ का अधिकार उस दिन जरूर मिल सकता है जिस दिन यदि लोग अपनी भावनाओं का ऐतिहासिक प्रमाण न दे पाए तो कम से कम प्रमाण न होने के नाम पर अपने हितों को साधने वाले लोग, उन भावनाओं के ऐतिहासिक न होने का प्रमाण दे दे.. लेकिन उससे पहले कदाचित नहीं! यदि किसी के पास अपनी गौरव-कथाओं के ऐतिहासिक होने का कोई प्रमाण न भी हो तो, उससे छेड़छाड़ करने वालों के पास उसके अनैतिहासिक होने का प्रत्यक्ष प्रमाण जरूर होना चाहिए.. वो भी तब, जब आप उन्ही प्रचलित चरित्रों के नाम पर अपनी एक कहानी गढ़ रहे हों..।

जिस प्रकार विज्ञान कभी पूर्ण नहीं हो सकता, उसी प्रकार इतिहास भी कभी पूर्ण नहीं होता.. जो आज का सत्य है, वो आज तक का जाना हुआ ही सत्य है। कल को बुद्धि, विवेक और क्षमताओं की प्रगाढ़ता के साथ सत्य और विशाल हो सकता है, यदि कोई पिछले तथ्यों से चिपका नहीं रह सकता तो उसका विरोध भी तभी नहीं होगा, जब वो प्रमाणिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो। आज के युग में भी बहुत से ऐसे इतिहासकार मिल जायेंगे, जिनका अपना एक विचार है और फिर उन्ही विचारों को मूर्त रूप देने के लिए, अपने-अपने तर्क ढूंढते रहते है। जिनका सत्य भी कहीं ना कहीं उनका अपना ही सत्य होता है और उनकी अपनी विचारधारा से ही प्रभावित होता है। ये कितना बड़ा विरोधाभास है, जब हम ऐतिहासिकता को तर्क या ढाल बनाकर अपनी कल्पना लोगों पर थोपना चाहते हैं।

पद्मावती या पद्मिनी चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह (रतनसेन) [1302-1303 ई०] की रानी थी जिन्हें इतिहास ग्रंथों में अधिकतर ‘पद्मिनी’, मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ नामक महाकाव्य में ‘पद्मावती’ के नाम से स्वीकार किया गया है। जायसी के अनुसार पद्मावती सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री थी और चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह योगी के वेश में वहाँ जाकर अनेक वर्षों के प्रयत्न के पश्चात उनके साथ विवाह कर के उन्हें चित्तौड़ ले आये। वह अद्वितीय सुन्दरी थी और रत्नसिंह के द्वारा निरादृत ज्योतिषी राघव चेतन से उनके रूप का वर्णन सुनकर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया। 8 वर्षों के युद्ध के बाद भी अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर विजय प्राप्त नहीं कर सका तो लौट गया और दूसरी बार आक्रमण करके उस ने छल से राजा रत्नसिंह को बंदी बनाया और उन्हें लौटाने की शर्त के रूप में पद्मावती को मांगा। तब रानी पद्मावती ने गोरा-बादल की सहायता से अनेक वीरों के साथ वेश बदलकर १५० पालकियों में रानी पद्मावती की सखियों के रूप में जाकर राजा रत्नसिंह को मुक्त कराया, परंतु इसका पता चलते ही अलाउद्दीन खिलजी ने प्रबल आक्रमण किया, जिसमें दिल्ली गये प्रायः सारे राजपूत वीर मारे गये। गोरा पराक्रम के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होते है जबकि बादल, राजा रत्नसिंह को लेकर सकुशल चित्तौड़ लौटते है परंतु वहां आते ही उन्हें कुंभलनेर पर आक्रमण करना पड़ा और कुंभलनेर के शासक देवपाल के साथ युद्ध में उन्हें मारने के बाद अत्यधिक घायल होकर चित्तौड़ लौटे और स्वर्ग सिधार गए। उधर पुनः अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया। रानी पद्मावती अन्य सोलह सौ स्त्रियों के साथ जौहर करके भस्म हो गयी तथा किले का द्वार खोल कर लड़ते हुए सारे राजपूत योद्धा मारे गये। अलाउद्दीन खिलजी को राख के सिवा और कुछ नहीं मिला।

अनेक इतिहासकारों ने पद्मिनी के नाम तथा अस्तित्व दोनों को अस्वीकारा है, परंतु पर्याप्त विचार के बाद महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव तथा डॉ० गोपीनाथ शर्मा जैसे अनेक इतिहासकारों ने कहानी की बहुत सी बातों को अप्रामाणिक मानते हुए भी पद्मिनी के अस्तित्व को स्वीकृत किया है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि हमारे विचार से यह मानना की पद्मिनी की कथा परंपरा जायसी के पद्मावत से आरंभ होती है वह सर्वथा भ्रम है। छिताईचरित में जो जायसी से कई वर्षों पूर्व लिखा गया था, पद्मिनी तथा अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन है। हेमरतन के गोरा-बादल चौपाई में तथा लब्धोदय के पद्मिनी चरित्र में इस कथा को स्वतंत्र रूप से लिखा गया है।… यह कथा एक राजपूत प्रणाली के अनुरूप विशुद्ध तथा स्वस्थ परंपरा के रूप में चली आयी है उसे सहज में अस्वीकार करना ठीक नहीं। हो सकता है कि कई बातें पाठ भेद से तथा वर्णन शैली से विभिन्न रूप में प्रचलित रही हों, किन्तु उनका आधार सत्य से हटकर नहीं ढूँढा जा सकता। स्थापत्य इस बात का साक्षी है कि चित्तौड़ में पद्मिनी के महल हैं और पद्मिनी ताल है जो आज भी उस विस्तृत तथा विवादग्रस्त महिला की याद दिला रहे हैं। पद्मिनी के संबंध में दी गयी सभी घटनाएँ सम्भवतः सत्य की कसौटी पर ठीक नहीं उतरें, किन्तु पद्मिनी की विद्यमानता, आक्रमण के समय उसकी सूझबूझ, उसके द्वारा जौहर व्रत का नेतृत्व आदि घटनाओं का एक स्वतंत्र महत्व है।

समस्त विवेचन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि राजा रत्नसिंह की पत्नी का नाम पद्मिनी या पद्मावती हो या नहीं, परंतु इससे उस रानी का न तो ऐतिहासिक व्यक्तित्व खंडित होता है और न ही उसकी गौरवगाथा में कोई कमी आती है। पूरे आन-बान के साथ जीने वाली तथा गौरव-रक्षा के लिए हँसते-हँसते प्राण न्योछावर कर देने वाली उस रानी की स्मृति भी हमेशा प्रेरणास्पद तथा आदर के योग्य रहेगी।

अभी तक यह बिलकुल स्पष्ट नहीं है कि संजय लीला भंसाली जी ने अपनी फिल्म में रानी पद्मावती को किस रूप में चित्रित किया है, लेकिन यदि प्रचार के लिए भी लोगों के गौरव के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है तो भंसाली जी जैसी क्षमतावान व्यक्तित्व के लिए ये कदाचित उचित नहीं है और जिन लोगों का केवल ये तर्क है, कि फ़िल्में समाज का ही आइना होती है, वो बड़ी बारीकी से उसके दुसरे पक्ष को छुपाना भी चाहते है.. कि फिल्मे हमारे समाज की नीव भी है। आज के बचपन से दादी-नानी की प्रेरणादायक कहानियां विलुप्त हो रही है, परियों की कहानिया अपने उसी लोक की तरफ वापस जा रही है.. छोटे बच्चे, कार्टून शो और बड़े, फिल्मों पर निर्भर हो रहे है.. हम सबको मिलकर तय करना है, कि हमें अपना भविष्य किस दिशा में ले जाना है..!

10 comments on “रानी पद्मावती, एक ऐतिहासिक चरित्र या साहित्यिक चरित्र..?Add yours →

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